पूज्य बापूजी अक्सर अपने सत्संगों में संत ज्ञानेश्वर की महिमा का वर्णन करते हैं। श्री संत ज्ञानेश्वर चरित्र-कथा में एक कथा आती है कि चौदह सौ वर्ष के योगी चांगदेव ने जब संत ज्ञानेश्वर की आत्मिक शक्ति का अनुभव किया तो उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की किन्तु उन्होने यह कहकर चांगदेव को शान्त करा दिया कि आपकी गुरु बनने का मान तो मुक्ताबाई को मिलने वाला है।
एक बार मुक्ताबाई नदी पर स्नान करने बैठीं थीं कि गलती से चांगदेव वहाँ चले गये। उनकी दृष्टि में यह दृश्य आने पर वह संकोचवश दूर जाने लगे। मुक्ताबाई ने उनकी यह स्थिति देखकर कहा – “अहारे रे मेल्या निगुर्या।“ मुक्ताबाई का स्नान निबटने पर जब वे साड़ी पहनकर बाहर आयीं तो चांगदेव ने प्रश्न किया - “आपने मुझे ऐसा क्यों कहा?” इस पर वे बोलीं –
“जरी गुरुकृपा असती तुजवरी। तरी विकार न ये अंतरी॥
भिंतीस कोनाडे तैसियापरी। मानुनी पुढे येतासी॥
जनीं वनीं हिंडता गाय। वस्त्रे नेसत असती काय॥
त्या पशु ऐशीच मी आहे। तुज का नये प्रत्यय॥“
अर्थात् “यदि तुम पर गुरुकृपा होती तो यह विकार तुम्हारे मन में ना आता। दीवार में छोटे-छोटे कोने होते हैं ऐसा मानकर तुम सामने आये होते। लोगों के बीच में या जंगल में घूमती गाय क्या कपड़े पहनती है? उस पशु जैसी ही मैं हूँ, क्या तुझे इसकी प्रतीति नहीं हुई?”
मुक्ताबाई से यह उपदेश सुनते ही चांगदेव को उनकी योग्यता का पता चल गया और उनका प्रभाव चांगदेव के अंत:करण में फैल गया। बाद में श्री ज्ञानेश्वर महाराज के कहने पर चांगदेव को मुक्ताबाई ने “महावाक्य” का उपदेश देकर कृतार्थ किया।
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