Saturday, 26 August 2017

ऋषि पंचमी (Rishi Panchami) - 26-August-2017

पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से:-

भारत ऋषि-मुनियों का देश है । इस देश में ऋषियों की जीवन-प्रणाली का और ऋषियों के ज्ञान का अभी भी इतना प्रभाव है कि उनके ज्ञान के अनुसार जीवन जीनेवाले लोग शुद्ध, सात्त्विक, पवित्र व्यवहार में भी सफल हो जाते हैं और परमार्थ में भी पूर्ण सफलता प्राप्त करते हैं ।

इस व्रत की कथा के अनुसार जिस किसी महिला ने मासिक धर्म के दिनों में शास्त्र-नियमों का पालन नहीं किया हो या अनजाने में ऋषि के दर्शन कर लिये हों या इन दिनों में उनके आगे चली गयी हो तो उस गलती के कारण जो दोष लगता है, उस दोष के निवारण हेतु, इस अपराध के लिए क्षमा माँगने हेतु यह व्रत रखा जाता है |

व्रत-विधि :-
ऋषि पंचमी का दिन त्यौहार का दिन नहीं है, व्रत का दिन है ।

आज के दिन हो सके तो अधेडा का दातुन करना चाहिए । दाँतों में छिपे हुए कीटाणु आदि निकल जायें और पायरिया जैसी बीमारियाँ नहीं हों तथा दाँत मजबूत हों - इस तरह दाँतों की तंदुरुस्ती का ख्याल रखते हुए यह बात बतायी गयी हो, ऐसा हो सकता है ।

इस दिन शरीर पर गाय के गोबर का लेप करके नदी में १०८ बार गोते मारने होते हैं । गोबर के लेप से शरीर का मर्दन करते हुए स्नान करने के पीछे रोमकूप खुल जायें, चमडी पर से कीटाणु आदि का नाश हो जाय और साथ में एक्युप्रेशर व मसाज भी हो जाय - ऐसा उद्देश्य हो सकता है ।

१०८ बार गोते मारने के पीछे ठंडी, गर्मी या वातावरण की प्रतिकूलता झेलने की जो रोगप्रतिकारक शक्ति शरीर में है, उसे जागृत करने का हेतु भी हो सकता है ।

अब आज के जमाने में नदी में जाकर १०८ बार गोते मारना सबके लिए तो संभव नहीं है, इसलिए ऐसा आग्रह भी मैं नहीं रखता हूँ, लेकिन स्नान करो तब १०८ बार हरिनाम लेकर अपने दिल को तो हरिरस से जरूर नहलाओ ।

स्नान के बाद सात कलश स्थापित करके सप्त ऋषियों का आवाहन करते हैं । उन ऋषियों की पत्नियों का स्मरण करके, उनका आवाहन, अर्चन-पूजन करते हैं ।

जो ब्राह्मण हो, ब्रह्मचिंतन करता हो, उसे सात केले घी-शक्कर मिलाकर देने चाहिए - ऐसा विधान है।

अगर कुछ भी देने की शक्ति नहीं है और न दे सकें तो कोई बात नहीं, पर दुबारा ऐसा अपराध नहीं करेंगे यह दृढ निश्चय करना चाहिए ।

ऋषि पंचमी के दिन बहनें मिर्च, मसाला, घी, तेल, गुड, शक्कर, दूध नहीं लेतीं । उस दिन लाल वस्त्र का दान करने का विधान है ।

आज के दिन सप्तर्षियों को प्रणाम करके प्रार्थना करें कि ‘हमसे कायिक, वाचिक एवं मानसिक जो भी भूलें हो गयी हों, उन्हें क्षमा करना । आज के बाद हमारा जीवन ईश्वर के मार्ग पर शीघ्रता से आगे बढे, ऐसी कृपा करना |

हमारी क्रियाओं में जब ब्रह्मसत्ता आती है, हमारे रजोगुणी कार्य में ब्रह्मचिंतन आता है तब हमारा व्यवहार भी तेजस्वी, देदीप्यमान हो उठता है ।

खान-पान, स्नानादि तो हम हररोज करते हैं, पर व्रत के निमित्त उन ब्रह्मर्षियों को याद करके सब क्रियाएँ करें तो हमारी लौकिक चेष्टाओं में भी उन ब्रह्मर्षियों का ज्ञान छलकने लगेगा । उनके अनुभव को अपना अनुभव बनाने की ओर कदम आगे रखें तो ब्रह्मज्ञानरूपी अति अद्भुत फल की प्राप्ति भी हो सकती है ।

ऋषि पंचमी का यह व्रत हमें ऋषिऋण से मुक्त होने के अवसर की याद दिलाता है । लौकिक दृष्टि से तो यह अपराध के लिए क्षमा माँगने का और कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर है, पर सूक्ष्म दृष्टि से अपने जीवन को ब्रह्मपरायण बनाने का संदेश देता है ।

ऋषियों की तरह हमारा जीवन भी संयमी, तेजस्वी, दिव्य, ब्रह्मप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करनेवाला हो - ऐसी मंगल कामना करते हुए ऋषियों और ऋषिपत्नियों को मन-ही-मन आदरपूर्वक प्रणाम करते हैं...

संत श्री आशारामजी आश्रम से प्रकाशित मासिक पत्रिका लोक कल्याण सेतु : अगस्त २००३) के अंक से संकलित।

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Param Pujya Sant Shri Asharam Ji Bapu Satsang - Express gratitude to Rishis on Rishi Panchami


Thursday, 24 August 2017

Shree Ganesh Chaturthi - 25-August-2017

श्री गणेश – कलंक चतुर्थी - 25 अगस्त 2017

विशेष:- आज, 24 अगस्त रात्रि 8-20 से चतुुर्थी शुरू हो जायेगी चन्द्रास्त रात्रि 9-04 तक व 25 अगस्त चन्द्रास्त रात्रि 9-44 तक चन्द्र-दर्शन निषिद्ध है।

क्यों लगता है भादों में शुक्ल चौथ के चन्द्र दर्शन से कलंक? आइये जानते हैं पूज्य संतश्री आशाराम बापूजी से:-

एक बार गणपतिजी अपने मौजिले स्वभाव से आ रहे थे। वह दिन था चौथ का। चंद्रमा ने उन्हें देखा | चंद्र को अपने रूप,लावण्य, सौंदर्य का अहंकार था | उसने गणपतिजी की मजाक उड़ाते हुये कहा : “ क्या रूप बनाया है | लंबा पेट है, हाथी का सिर है …” आदि कह के व्यंग कसा तो गणपतिजी ने देखा की दंड के बिना इसका अहं नहीं जायेगा |

गणपतिजी बोले: “ जा, तू किसीको मुँह दिखने के लायक नहीं रहेगा |”

फिर तो चंद्रमा उगे नहीं | देवता चिंतित हुये की पृथ्वी को सींचनेवाला पूरा विभाग गायब! अब औषधियाँ पुष्ट कैसी होगी, जगत का व्यवहार कैसे चलेगा ?”


ब्रह्माजी ने कहा: “चंद्रमा की उच्छृंखलता के कारण गणपतिजी नाराज हो गये है|”

गणपतिजी प्रसन्न हो इसलिये अर्चना-पूजा की गयी | गणपतिजी जब थोड़े सौम्य हुये तब चंद्रमा मुँह दिखाने के काबिल हुआ | चंद्रमा ने गणपतिजी भगवान की स्त्रोत-पाठ द्वारा स्तुति की | तब गणपतिजी ने कहा: “ वर्ष के और दिन तो तुम मुँह दिखाने के काबिल रहोगे लेकिन भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चौथ के दिन तुमने मजाक किया था तो इस दिन अगर तुमको कोई देखेगा तो जैसे तुम मेरा मजाक उडाकर मेरे पर कलंक लगा रहे थे, ऐसे ही तुम्हारे दर्शन करने वाले पर वर्ष भर में कोई भारी कलंक लगेगा ताकि लोगों को पता चले कि "रूप दिसी मगरूर न थीउ एदो हसन ते नाज न कर।"

रूप और सौंदर्य का अहंकार मत करो | देवगणों का स्वामी, इन्द्रियों का स्वामी आत्मदेव है | तू मेरे आत्मा में रमण करने वाले पुरुष के दोष देखकर मजाक उडाता है | तू अपने बाहर के सौंदर्य को देखता है तो बाहर का सौंदर्य जिस सच्चे सौंदर्य से आता है उस आत्म-परमात्म देव मुझको तो तू जानता नहीं है | नारायण-रूप में है और प्राणी-रूप में भी वही है | हे चंद्र! तेरा भी असली स्वरुप वही है, तू बाहर के सौंदर्य का अहंकार मत कर |”

भगवान श्रीकृष्ण जैसे ने चौथ का चाँद देखा तो उनपर स्यमन्तक मणि चुराने का कलंक लगा था | इतना ही नहीं बलराम ने भी कलंक लगा दिया था, हालांकि भगवान श्रीकृष्ण ने मणि चुरायी नहीं थी |

जो लोग बोलते हैं कि ‘वह कथा हम नहीं मानते, शास्र-वास्त्र हम नहीं मानते।’ तो आजमा के देखो भैया ! भाद्रपद शुक्ल चौथ के चंद्रमा के दर्शन करके देख, फिर देख, कथा-सत्संग को नही मानता तो समझ आ जायेगा, प्रतिष्ठा को धूल में मिला दे ऐसा कलंक लगेगा वर्ष भर में |

आप सावधान हो जाना | ‘नहीं देखना है, नहीं देखना है, नहीं देखना है ‘ ऐसा भी दिख जाता है | ऐसा कई बार हुआ हम लोगों से | एक बार लंदन में दिख गया, फिर हम हिंदुस्तान आये तो हमारे साथ न जाने क्या-क्या चला | फिर एक-दो साल बीते | फिर दिख गया तो क्या-क्या चला | अगले साल नहीं देखा तो उस साल ऐसे कुछ खास गडबड नहीं हुई | फिर इस साल देखेंगे तो ऐसा कुछ होगा…. लेकिन हम तो आदि हो गये, हमारे कंधे मजबूत हो गये |

एक बार घाटवाले बाबा ने मुझसे पूछा: “भाई! चौथ का चंद्रमा देखने से कलंक लगता है – ऐसा लिखा है |”

मैंने कहाँ : “हाँ |”.

“श्रीकृष्ण को भी लगा था ?”

“हाँ |”

“हमने तो देख लिया |”

“अपने देखा तो आपको कुछ नहीं हुआ।”

“मेरे को तो कुछ नहीं हुआ |”

“कितना समय हो गया |”

“वर्ष पूरा हो गया | अगले साल देखा था चंद्र को, तो कुछ नहीं हुआ |”

“कुछ नहीं तो शास्त्र झूठा है ?”

“नहीं, मेरे को तो कुछ नहीं हुआ पर लोगों ने हरिद्वार की दीवारों पर लिख दिया घाटवाला बाबा रंडीबाज है |” लोगों ने लिख दिया और लोगों ने पढ़ा, मेरे को तो कुछ नहीं हुआ।

अब ब्रह्मज्ञानी संत को तो क्या होगा बाबा !

यदि भूल से भो चौथ का चंद्रमा दिख जाय तो ‘श्रीमदभागवत’ के १०वे स्कंध, ५६-५७वे अध्याय में दी गयी ‘स्यमंतक मणि की चोरी’ की कथा का आदरपूर्वक श्रवण करना | भाद्रपद शुक्ल तृतीया या पंचमी के चंद्रमा के दर्शन कर लेना, इससे चौथ को दर्शन हो गये हों तो उसका ज्यादा खतरा नही होगा |

भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी 25 अगस्त को है | चंद्रास्त रात्रि 9.44 बजे होगा | इस समय तक चंद्र-दर्शन ना हो इसकी सावधानी रखें।
(ऋषिप्रसाद – अगस्त २००६ से)


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Param Pujya Sant Shri Asharam Ji Bapu Satsang on Ganesh Chaturthi : "Ganesh Chaturthi ko Chaand dekhne se kalank lagta hai"

Sunday, 20 August 2017

Rakshabandhan with Fremont Police, California

#WakeUpHindus "The whole world is waiting for the "Love & Amity" that only "YOU" can give because your Saints taught you to give it."

Sant Shri Asharamji Bapu Ashram, California (America) celebrates Rakshabandhan with Fremont Police, California. 

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Thursday, 17 August 2017

Aja Ekadashi - 18-August-2017

अजा एकादशी महात्म्य


युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार श्रावण) मास के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? कृपया बताइये ।



भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! एकचित्त होकर सुनो । भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘अजा’ है । वह सब पापों का नाश करनेवाली बतायी गयी है । भगवान ह्रषीकेश का पूजन करके जो इसका व्रत करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।



पूर्वकाल में हरिश्चन्द्र नामक एक विख्यात चक्रवर्ती राजा हो गये हैं, जो समस्त भूमण्डल के स्वामी और सत्यप्रतिज्ञ थे । एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर उन्हें राज्य से भ्रष्ट होना पड़ा । राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को बेच दिया । फिर अपने को भी बेच दिया । पुण्यात्मा होते हुए भी उन्हें चाण्डाल की दासता करनी पड़ी । वे मुर्दों का कफन लिया करते थे । इतने पर भी नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र सत्य से विचलित नहीं हुए ।



इस प्रकार चाण्डाल की दासता करते हुए उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये । इससे राजा को बड़ी चिन्ता हुई । वे अत्यन्त दु:खी होकर सोचने लगे: ‘क्या करुँ ? कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा उद्धार होगा?’ इस प्रकार चिन्ता करते करते वे शोक के समुद्र में डूब गये ।



राजा को शोकातुर जानकर महर्षि गौतम उनके पास आये । श्रेष्ठ ब्राह्मण को अपने पास आया हुआ देखकर नृपश्रेष्ठ ने उनके चरणों में प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़ गौतम के सामने खड़े होकर अपना सारा दु:खमय समाचार कह सुनाया ।



राजा की बात सुनकर महर्षि गौतम ने कहा :‘राजन् ! भादों के कृष्णपक्ष में अत्यन्त कल्याणमयी ‘अजा’ नाम की एकादशी आ रही है, जो पुण्य प्रदान करनेवाली है । इसका व्रत करो । इससे पाप का अन्त होगा । तुम्हारे भाग्य से आज के सातवें दिन एकादशी है । उस दिन उपवास करके रात में जागरण करना ।’ ऐसा कहकर महर्षि गौतम अन्तर्धान हो गये ।



मुनि की बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र ने उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया । उस व्रत के प्रभाव से राजा सारे दु:खों से पार हो गये । उन्हें पत्नी पुन: प्राप्त हुई और पुत्र का जीवन मिल गया । आकाश में दुन्दुभियाँ बज उठीं । देवलोक से फूलों की वर्षा होने लगी ।



एकादशी के प्रभाव से राजा ने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और अन्त में वे पुरजन तथा परिजनों के साथ स्वर्गलोक को प्राप्त हो गये ।



राजा युधिष्ठिर ! जो मनुष्य ऐसा व्रत करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में जाते हैं । इसके पढ़ने और सुनने से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है ।

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Param Pujya Sant Shri Asharam Ji Bapu Satsang on Aja Ekadashi (अजा एकादशी)

Friday, 11 August 2017

Sant Gyaneshwar Ki Mahima

पूज्य बापूजी अक्सर अपने सत्संगों में संत ज्ञानेश्वर की महिमा का वर्णन करते हैं। श्री संत ज्ञानेश्वर चरित्र-कथा में एक कथा आती है कि चौदह सौ वर्ष के योगी चांगदेव ने जब संत ज्ञानेश्वर की आत्मिक शक्ति का अनुभव किया तो उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की किन्तु उन्होने यह कहकर चांगदेव को शान्त करा दिया कि आपकी गुरु बनने का मान तो मुक्ताबाई को मिलने वाला है।

एक बार मुक्ताबाई नदी पर स्नान करने बैठीं थीं कि गलती से चांगदेव वहाँ चले गये। उनकी दृष्टि में यह दृश्य आने पर वह संकोचवश दूर जाने लगे। मुक्ताबाई ने उनकी यह स्थिति देखकर कहा – “अहारे रे मेल्या निगुर्या।“ मुक्ताबाई का स्नान निबटने पर जब वे साड़ी पहनकर बाहर आयीं तो चांगदेव ने प्रश्न किया - “आपने मुझे ऐसा क्यों कहा?” इस पर वे बोलीं –

“जरी गुरुकृपा असती तुजवरी। तरी विकार न ये अंतरी॥
भिंतीस कोनाडे तैसियापरी। मानुनी पुढे येतासी॥
जनीं वनीं हिंडता गाय। वस्त्रे नेसत असती काय॥
त्या पशु ऐशीच मी आहे। तुज का नये प्रत्यय॥“

अर्थात् “यदि तुम पर गुरुकृपा होती तो यह विकार तुम्हारे मन में ना आता। दीवार में छोटे-छोटे कोने होते हैं ऐसा मानकर तुम सामने आये होते। लोगों के बीच में या जंगल में घूमती गाय क्या कपड़े पहनती है? उस पशु जैसी ही मैं हूँ, क्या तुझे इसकी प्रतीति नहीं हुई?”

मुक्ताबाई से यह उपदेश सुनते ही चांगदेव को उनकी योग्यता का पता चल गया और उनका प्रभाव चांगदेव के अंत:करण में फैल गया। बाद में श्री ज्ञानेश्वर महाराज के कहने पर चांगदेव को मुक्ताबाई ने “महावाक्य” का उपदेश देकर कृतार्थ किया।

Wednesday, 9 August 2017

Relief materials reaches the flood victims in Gujarat

Relief materials reaches the flood victims in Gujarat by Sant Shri Asharamji Bapu Ashram:-

"....Whenever there has been a natural calamity in the country, Sant Asharam Bapuji and his disciples have played a leading role in the relief works whether it be the earthquake of Kutch-Bhuj, catastrophic waves of tsunami, floods in Odissa or the terrible tragedy of Uttarakhand, relief works run under the aegis of Bapuji have always been providing a great deal of relief to the concerned victims without fail."

Monday, 7 August 2017

Let us celebrate Vedic RakshaBandhan

शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का प्रतीक भारतीय संस्कृति के पर्व #RakshaBandhan की सभी को शुभकामनायें। 

जानिये कैसे मनायें वैदिक रीति से रक्षाबन्धन:


Vedic RakshaBandhan

रक्षाबंधन - 7th अगस्त 2017

कैसे मनायें "वैदिक रक्षाबंधन" :-
पूज्य संतश्री आशाराम बापूजी अपने सत्संगों में वैदिक रक्षा बन्धन का महत्व बताते हुए कहते हैं कि “रक्षासूत्र” मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यह सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम जप व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है।“ वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें, उसमें - १) दूर्वा २) अक्षत (साबूत चावल) ३) केसर या हल्दी ४) शुद्ध चंदन ५) सरसों के साबूत दाने इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें । फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो इन पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं। वैदिक राखी में डाली जाने वाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जाने वाले संकल्पों को पोषित करती हैं, जैसे :-

(१) दूर्वा:- दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही “हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सद्गुण फैलते जायें, बढ़ते जायें...” इस भावना का द्योतक है दूर्वा । दूर्वा गणेशजी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आनेवाले विघ्नों का नाश हो जाये।

(२) अक्षत (साबूत चावल):- भाई-बहन का प्रेम व विश्वास अटूट हो। हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखंड हो, कभी क्षत-विक्षत न हो - यह अक्षत का संकेत है। अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं । जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाये।

(३) केसर या हल्दी:- केसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो । उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाये । केसर की जगह पिसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं । हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है । यह नजरदोष व नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है।

(४) चंदन:- चंदन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है । यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो । उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे । उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले।

(५) सरसों:- सरसों तीक्ष्ण होती है। इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज-द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें।

अतः यह वैदिक रक्षासूत्र शुभ संकल्पों से परिपूर्ण होने के कारण सर्व-मंगलकारी है। रक्षासूत्र बाँधते समय यह श्लोक बोला जाता है:-
“येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां अभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।“

इस मंत्रोच्चारण व शुभ संकल्प सहित वैदिक राखी बहन अपने भाई को, माँ अपने बेटे को, दादी अपने पोते को बाँध सकती है । यही नहीं, शिष्य भी यदि इस वैदिक राखी को अपने सद्गुरु को प्रेम सहित अर्पण करता है तो उसकी सब अमंगलों से रक्षा होती है तथा गुरुभक्ति बढ़ती है। शिष्य सद्गुरु को रक्षासूत्र बाँधते समय ‘अभिबध्नामि’ के स्थान पर ‘रक्षबध्नामि’ कहे।

Friday, 4 August 2017

Why Pujya Asharam Bapuji is the prime target

Devoted 50 years of life for the Spiritual Awakening of the people and to spread peace & harmony in the country, saved thousands then Why Bogus Case On Pujya Asharam Ji Bapu?

Wednesday, 2 August 2017

Putrada Ekadashi - पुत्रदा-पवित्रा एकादशी

पुत्रदा-पवित्रा एकादशी - 03 अगस्त 2017

युधिष्ठिर ने पूछा : मधुसूदन ! श्रावण के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है ? कृपया मेरे सामने उसका वर्णन कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! प्राचीन काल की बात है । द्वापर युग के प्रारम्भ का समय था । माहिष्मतीपुर में राजा महीजित अपने राज्य का पालन करते थे किन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था, इसलिए वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था । अपनी अवस्था अधिक देख राजा को बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने प्रजावर्ग में बैठकर इस प्रकार कहा: ‘प्रजाजनो ! इस जन्म में मुझसे कोई पातक नहीं हुआ है । मैंने अपने खजाने में अन्याय से कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है । ब्राह्मणों और देवताओं का धन भी मैंने कभी नहीं लिया है । पुत्रवत् प्रजा का पालन किया है । धर्म से पृथ्वी पर अधिकार जमाया है । दुष्टों को, चाहे वे बन्धु और पुत्रों के समान ही क्यों न रहे हों, दण्ड दिया है । शिष्ट पुरुषों का सदा सम्मान किया है और किसीको द्वेष का पात्र नहीं समझा है । फिर क्या कारण है, जो मेरे घर में आज तक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ? आप लोग इसका विचार करें ।’

राजा के ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितों के साथ ब्राह्मणों ने उनके हित का विचार करके गहन वन में प्रवेश किया । राजा का कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधर उधर घूमकर ॠषिसेवित आश्रमों की तलाश करने लगे । इतने में उन्हें मुनिश्रेष्ठ लोमशजी के दर्शन हुए ।

लोमशजी धर्म के त्तत्त्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रों के विशिष्ट विद्वान, दीर्घायु और महात्मा हैं । उनका शरीर लोम से भरा हुआ है । वे ब्रह्माजी के समान तेजस्वी हैं । एक एक कल्प बीतने पर उनके शरीर का एक एक लोम विशीर्ण होता है, टूटकर गिरता है, इसीलिए उनका नाम लोमश हुआ है । वे महामुनि तीनों कालों की बातें जानते हैं ।

उन्हें देखकर सब लोगों को बड़ा हर्ष हुआ । लोगों को अपने निकट आया देख लोमशजी ने पूछा : ‘तुम सब लोग किसलिए यहाँ आये हो? अपने आगमन का कारण बताओ । तुम लोगों के लिए जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करुँगा ।’

प्रजाजनों ने कहा : ब्रह्मन् ! इस समय महीजित नामवाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है । हम लोग उन्हींकी प्रजा हैं, जिनका उन्होंने पुत्र की भाँति पालन किया है । उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दु:ख से दु:खित हो हम तपस्या करने का दृढ़ निश्चय करके यहाँ आये है । द्विजोत्तम ! राजा के भाग्य से इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है । महापुरुषों के दर्शन से ही मनुष्यों के सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । मुने ! अब हमें उस उपाय का उपदेश कीजिये, जिससे राजा को पुत्र की प्राप्ति हो ।

उनकी बात सुनकर महर्षि लोमश दो घड़ी के लिए ध्यानमग्न हो गये । तत्पश्चात् राजा के प्राचीन जन्म का वृत्तान्त जानकर उन्होंने कहा : ‘प्रजावृन्द ! सुनो । राजा महीजित पूर्वजन्म में मनुष्यों को चूसनेवाला धनहीन वैश्य था । वह वैश्य गाँव-गाँव घूमकर व्यापार किया करता था । एक दिन ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को, जब दोपहर का सूर्य तप रहा था, वह किसी गाँव की सीमा में एक जलाशय पर पहुँचा । पानी से भरी हुई बावली देखकर वैश्य ने वहाँ जल पीने का विचार किया । इतने में वहाँ अपने बछड़े के साथ एक गौ भी आ पहुँची । वह प्यास से व्याकुल और ताप से पीड़ित थी, अत: बावली में जाकर जल पीने लगी । वैश्य ने पानी पीती हुई गाय को हाँककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पीने लगा । उसी पापकर्म के कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए हैं । किसी जन्म के पुण्य से इन्हें निष्कण्टक राज्य की प्राप्ति हुई है ।’

प्रजाजनों ने कहा : मुने ! पुराणों में उल्लेख है कि प्रायश्चितरुप पुण्य से पाप नष्ट होते हैं, अत: ऐसे पुण्यकर्म का उपदेश कीजिये, जिससे उस पाप का नाश हो जाय ।

लोमशजी बोले : प्रजाजनो ! श्रावण मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी होती है, वह ‘पुत्रदा’ के नाम से विख्यात है । वह मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली है । तुम लोग उसीका व्रत करो ।

यह सुनकर प्रजाजनों ने मुनि को नमस्कार किया और नगर में आकर विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ के व्रत का अनुष्ठान किया । उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजा को अर्पण कर दिया । तत्पश्चात् रानी ने गर्भधारण किया और प्रसव का समय आने पर बलवान पुत्र को जन्म दिया ।

इसका माहात्म्य सुनकर मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है तथा इहलोक में सुख पाकर परलोक में स्वर्गीय गति को प्राप्त होता है ।