Wednesday, 22 March 2017
"जिस कुल में महापुरुष अवतरित होते हैं वह कुल पवित्र, जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह माता कृतार्थ एवं जिस जगह पर वे जन्म लेते हैं वह वसुन्धरा पुण्यशालिनी हो जाती है।"
बालक लीलाराम के बचपन की एक घटना है:-जिस गाँव में उनका जन्म हुआ था, वह महराब चांडाई नामक गाँव बहुत छोटा था। उस जमाने में दुकान में बेचने के लिए सामान टंडेबाग से लाना पड़ता था। उनके चाचा भाई लखुमल वस्तुओं की सूची एवं पैसे देकर बालक लीलाराम को खरीदी करने के लिए भेजते थे। एक समय मारवाड़ एवं थार में बड़ा अकाल पड़ा था। लखुमलजी ने पैसे देकर बालक लीलाराम को दुकान के लिए खरीदी करने को भेजा। लीलाराम खरीदी करके, माल-सामान की दो बैलगाड़ियाँ भरकर अपने गाँव लौट रहे थे। गाड़ियों में आटा, दाल, चावल, गुड़, घी आदि था। रास्ते में एक जगह पर गरीब, पीड़ित,अनाथ एवं भूखे लोगों ने लीलाराम को घेर लिया। दुर्बल एवं भूख से व्याकुल लोग जब अनाज के लिए गिड़गिड़ाने लगे तब लीलाराम का हृदय पिघल उठा। वे सोचने लगे, "इस माल को मैं भाई की दुकान पर ले जाऊँगा। वहाँ से खरीदकर भी मनुष्य ही खायेंगे न....! ये सब भी तो मनुष्य ही हैं। बाकी बची पैसे के लेन-देन की बात... तो प्रभु के नाम पर भले ये लोग ही खा लें।"
बालक लीलाराम ने बैलगाड़ियाँ खड़ी करवायीं और उन क्षुधापीड़ित लोगों से कहाः "यह रहा सब सामान। तुम लोग इसमें से भोजन बना कर खा लो।"
लखुमलजी ने पूछाः"माल लाया?"
"हाँ।"
"कहाँ है?"
"गोदाम में।"
"अच्छा बेटा ! जा, तू थक गया होगा। सामान का हिसाब कल देख लेंगे।"
दूसरे दिन लीलाराम दुकान पर गये ही नहीं। उन्हें तो पता था कि गोदाम में क्या माल रखा है। वे घबराये, काँपने लगे। उनको काँपते हुए देखकर लखुमल ने कहाः "अरे ! तुझे बुखार आ गया? आज घर पर ही आराम कर।"
एक दिन.... दो दिन.... तीन दिन..... बालक लीलाराम बुखार के बहाने दिन बिता रहे हैं और भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं:-
"हे भगवान! अब तो तू ही जान। मैं कुछ नहीं जानता। हे करन-करावनहार स्वामी! तू ही सब कराता है। तूने ही भूखे लोगों को खिलाने की प्रेरणा दी। अब सब तेरे ही हाथ में है, प्रभु ! तू मेरी लाज रखना। मैं कुछ नहीं, तू ही सब कुछ है...."
एक दिन शाम को लखुमलजी अचानक लीलाराम के पास आये और बोलेः''लीला.... लीला ! तू कितना अच्छा माल लेकर आया है !"
लीलाराम घबराये। काँप उठे कि "अच्छा माल.... अच्छा माल कहकर अभी लखुमल मेरे कान पकड़कर मारेंगे।" वह हाथ जोड़कर बोलेः"मेरे से गलती हो गयी।"
"नहीं बेटा ! गलती नहीं हुई। मुझे लगता था कि व्यापारी तुझे कहीं ठग न लें। ज्यादा कीमत पर घटिया माल न पकड़ा दें किन्तु सभी चीजें बढ़िया हैं। पैसे तो नहीं खूटे ना?"
"नहीं, पैसे तो पूरे हो गये और माल भी पूरा हो गया।""माल किस तरह पूरा हो गया?"
बालक लीलाराम जवाब देने में घबराने लगे तो लखुमल ने कहाः "नहीं बेटा ! सब ठीक है। चल, तुझे बताऊँ।"
ऐसा कहकर लखुमलजी लीलाराम का हाथ पकड़कर गोदाम में ले गये। लीलाराम ने वहाँ जाकर देखा तो सभी खाली बोरे माल-सामान से भरे हुए मिले ! उनका हृदय भावविभोर हो उठा और गदगद होते हुए उन्होंने परमात्मा को धन्यवाद दियाः "प्रभु ! तू कितना दयालु है.... कितना कृपालु है !"
लीलाराम जी ने तुरंत ही निश्चय कियाः "जिस परमात्मा ने मेरी लाज रखी है.... गोदाम में बाहर से ताला होने पर भी भीतर के खाली बोरों को भर देने की जिसमें शक्ति है, अब मैं उसी परमात्मा को खोजूँगा..... उसके अस्तित्व को जानूँगा.... उसी प्यारे को अब अपने हृदय में प्रकट करूँगा।"
कैसे बने बालक लीलाराम से साईं लीलाशाहजी महाराज?
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