Thursday, 28 April 2016
परम पूज्य संत श्री आशाराम बापूजी के अवतरण दिवस
परम पूज्य संत श्री आशाराम बापूजी के अवतरण अर्थात् #विश्व_सेवा_दिवस की सभी को खूब-खूब बधाई।
इस पावन अवसर पर हरिद्वार के लव कुश मूक बधिर व मंदबुद्धि विद्यालय में शरबत और फल बाँटे गये तथा स्वामी अजरानंद अंध विद्यालय में नेत्रहीन विद्यार्थियों में तुलसी टॉफी के पैकेट्स व बिस्कुट का वितरण हुआ । जिन विद्यार्थियों की दृष्टि थी उनमें पूज्य गुरुदेव के श्री चित्र वाली नोटबुक और तुलसी टॉफियाँ बांटी गयी |
Selfless Service by Disciples at Haridwar #VishwaSevaDiwas
संत श्री आशारामजी बापू का अवतरण दिवस #विश्व_सेवा_दिवस, #विश्वसेवादिवस, #VishwaSevaDiwas के रूप में पूरे विश्व में विभिन्न सेवा कार्य करके मनाया जाता है। अवतरण दिवस 28th अप्रैल को है मगर कुछ दिन पहले से ही सम्पूर्ण विश्व में सेवा कार्य शुरू हो जाते हैं। हरिद्वार में भी कल हरकी पैड़ी जाने वाले मुख्य व व्यस्त मार्ग पर शरबत वितरण हुआ तथा अस्पतालों में मरीजों को फल भी बाँटे गये।
संत श्री आशारामजी बापू की दिव्य लीला
धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो
"ज्यों केले की पात में पात-पात में पात,
त्यों संतन की बात में बात-बात में बात।"
Friday, 15 April 2016
Ram Navami - भगवान श्री राम चन्द्र जी के प्राकटोत्सव
भगवान श्री राम चन्द्र जी के प्राकटोत्सव की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
“ नौमी तिथि मधुमास पुनीता, सुकुल पक्ष अभिजित हरिप्रीता। मध्य दिवस अति सीत न घामा, पावन काल लोक विश्रामा।।“
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन शुभ कर्क लग्न व पुनर्वसु नक्षत्र के समय जब पाँच ग्रह उच्च स्थान में तथा सूर्य मेष राशि पर थे तब दोपहर के 12 बजे श्रीराम जी का प्रादुर्भाव हुआ था।
श्रीरामचंद्रजी प्रेम व पवित्रता की मूर्ति थे, प्रसन्नता के पुंज थे। ऐसे प्रभु राम के प्राकट्य दिवस रामनवमी की आप सभी को बधाई हो।
Chaitra Navratri 2016 - नवम नवदुर्गा: माता सिद्धिदात्री
नवरात्रि - सभी शक्तियों का समावेश है मां सिद्धिदात्री में
दुर्गा जी का सिद्धिदात्री अवतार
सर्व सिद्धियों की दाता "माँ सिद्धिदात्री" देवी दुर्गा का नौवां व अंतिम स्वरुप हैं। नवमी के दिन माँ सिद्धिदात्री की पूजा और कन्या पूजन के साथ ही नवरात्रों का समापन होता है।
नवरात्रि का नवां दिन मां सिद्धिदात्री का है जिनकी आराधना से व्यक्ति को सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती है उसे बरे कर्मों से लडऩे की शक्ति मिलती है। मां सिद्धिदात्री की आराधना से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। कमल के आसान पर विराजमान मां सिद्धिदात्री के हाथों में कमल, शंख गदा, सुदर्शन चक्र है जो हमें बुरा आचरण छोड़ सदकर्म का मार्ग दिखाता है। आज के दिन मां की आराधना करने से भक्तों को यश, बल व धन की प्राप्ति होती है।मां सिद्धिदात्री का नौंवा स्वरूप हमारे शुभ तत्वों की वृद्धि करते हुए हमें दिव्यता का आभास कराता है। मां की स्तुति हमारी अंतरात्मा को दिव्य पवित्रता से परिपूर्ण करती है हमें सत्कर्म करने की प्रेरणा देती है। मां की शक्ति से हमारे भीतर ऐसी शक्ति का संचार होता है जिससे हम तृष्णा व वासनाओं को नियंत्रित करके में सफल रहते हैं तथा जीवन में संतुष्टिi की अनुभूति कराते हैं। मां का दैदीप्यमान स्वरूप हमारी सुषुप्त मानसिक शक्तियों को जागृत करते हुए हमें पर नियंत्रिण करने की शक्ति व सामथ्र्य प्रदान करता है। आज के दिन मां दुर्गा के सिद्धिदात्री रूप की उपासना हमारी अनियंत्रित महत्वाकांक्षाए, असंतोष, आलस्य, ईष्र्या, परदोषदर्शन, प्रतिशोध आदि दुर्भावनाओं व दुर्बलताओं का समूल नाश करते हुए सदगुणों का विकास करती है। मां के आर्शीवाद से ही हमारे भीतर सतत क्रियाशीलता उत्पन्न होती है जिससे हम कठिन से कठिन मार्ग पर भी सहजता से आगे बढ़ते जाते हैं। मां दुर्र्गा की नावों शक्तियों का नाम सिद्धिदात्री है ये अष्टसिद्धियां प्रदान करने वाली देवी है देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इन्हीं शक्ति स्वरूपा देवी की उपासना करके सभी शक्तियां प्राप्त की थीं जिसके प्रभाव से शिव का आधा शरीर स्त्री का हो गया था। शिवजी का यह स्वरूप अर्धनारीश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मां सिद्धिदात्री सिंहवाहिनी, चतुर्भुज तथा सर्वदा प्रसन्नवंदना है। देवी सिद्धिदात्री की पूजा के लिए नवाहन का प्रसाद, नवरस युक्त भोजन तथा नौ प्रकार के फल-फूल अदि का अर्पण किया जाता है। इस तरह नवरात्र के नवें दिन मां सिद्धिदात्री की आराधना करने वाले भक्तों को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की होती है। सिद्धिदात्री को देवी सरस्वती का भी स्वरूप कहा जाता है जो श्वेत वस्त्र धारण किए भक्तों का ज्ञान देती है।
सिद्धिदात्रि का स्वरुप
हिन्दू धर्म के पुराणों में बताया गया है कि देवी सिद्धिदात्री के चार हाथ है जिनमें वह शंख, गदा, कमल का फूल तथा चक्र धारण करे रहती हैं। यह कमल पर विराजमान रहती हैं। इनके गले में सफेद फूलों की माला तथा माथे पर तेज रहता है। इनका वाहन सिंह है। देवीपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में देवी की शक्तियों और महिमाओं का बखान किया गया है।
सिद्धियों की स्वामिनी हैं सिद्धिदात्री
पुराणों के अनुसार देवी सिद्धिदात्री के पास अणिमा, महिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, गरिमा, लघिमा, ईशित्व और वशित्व यह आठ सिद्धियां हैं। देवी पुराण के मुताबिक सिद्धिदात्री की उपासना करने का बाद ही शिव जी ने सिद्धियों की प्राप्ति की थी।
शिव जी का आधा शरीर नर और आधा शरीर नारी का इन्हीं की कृपा से प्राप्त हुआ था। इसलिए शिव जी विश्व में अर्द्धनारीश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। माना जाता है कि देवी सिद्धिदात्री की आराधना करने से लौकिक व परलौकिक शक्तियों की प्राप्ति होती है।
माँ सिद्धिदात्री का मंत्र
इनका उपासना मंत्र है:
सिद्धगन्धर्वयक्षाघैरसुरैरमरैरपि।सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥
पूजा में उपयोगी खाद्य साम्रगी
नवमी तिथि को भगवती को धान का लावा अर्पित करके ब्राह्मण को दे देना चाहिए। इस दिन देवी को अवश्य भोग लगाना चाहिए।विशेष:समस्त सिद्धियों की प्राति के लिए मां सिद्धिदात्री की पूजा विशेष मानी जाती है।
चैत्र नवरात्र के नौवें दिन मां सिद्धिदात्री की 15 अप्रैल, 2016 को की जाएगी। शारदीय नवरात्र में माता की पूजा 10 अक्टूबर, 2016 को होगी।
Thursday, 14 April 2016
Chaitra Navratri 2016 - मां का आठवां स्वरूप महागौरी
दुर्गा जी महागौरी अवतार
शंख और चन्द्र के समान अत्यंत श्वेत वर्ण धारी "माँ महागौरी" माँ दुर्गा का आठवां स्वरुप हैं। नवरात्रि के आठवें दिन देवी महागौरा की पूजा की जाती है। यह शिव जी की अर्धांगिनी है। कठोर तपस्या के बाद देवी ने शिव जी को अपने पति के रुप में प्राप्त किया था।
मां दुर्गा का आठवां रूप महागौरी व्यक्ति के भीतर पल रहे कुत्सित व मलिन विचारों को समाप्त कर प्रज्ञा व ज्ञान की ज्योति जलाता है। मां का ध्यान करने से व्यक्ति को आत्मिक ज्ञान की अनुभूति होती है उसके भीतर श्रद्धा विश्वास व निष्ठ की भावना बढ़ाता है। मां दुर्गा की अष्टम शक्ति है महागौरी जिसकी आराधना से उसके पुत्रों (भक्तों) को जीवन की सही राह का ज्ञान होता है जिस पर चलकर वह अपने जीवन का सार्थक बना सकता है। नवरात्र में मां के इस रूप की आराधना व्यक्ति के समस्त पापों का नाश करती है। व्रत रहकर मां का पूजन कर उसे भोग लगाएं तथा उसके बाद मां का प्रसाद ग्रहण करे जिससे व्यक्ति के भीतर के दुराभाव दूर होते हैं।नवरात्र के आठवें दिन मां महागौरी की आराधना की जाती है। आज के दिन मां की स्तुति से समस्त पापों का नाश होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मां ने कठिन तप कर गौरवर्ण प्राप्त किया था। मां की उत्पत्ति के समय इनकी आयु आठ वर्ष की थी जिस कारण इनका पूजन अष्टमी को किया जाता है। मां अपने भक्तों के लिए अन्नपूर्णा स्वरूप है। आज ही के दिन कन्याओं के पूजन का विधान है। मां धन वैभव, सुख शांति की अधिष्ठात्री देवी हैं। मां का स्वरूप ब्राह्मण को उज्जवल करने वाला तथा शंख, चन्द्र व कुंद के फूल के समान उज्जवल है। मां वृषभवाहिनी (बैल) शांति स्वरूपा है। कहा जाता है कि मां ने शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया जिसके बाद उनका शरीर मिटटी ढक गया। आखिरकार भगवान महादेव उन पर प्रसन्न हुए और उन्हें पत्नी होने का आर्शीवाद प्रदान किया। भगवान शंकर ने इनके शरीर को गंगाजल से धोया जिसके बाद मां गौरी का शरीर विद्युत के समान गौर व दैदीप्यमान हो गया। इसी कारण इनका नाम महागौरी पड़ा। मां संगीत व गायन से प्रसन्न होती है तथा इनके पूजन में संगीत अवश्य होता है। कहा जाता है कि आज के दिन मां की आराधना सच्चे मन से होता तथा मां के स्वरूप में ही पृथ्वी पर आयी कन्याओं को भोजन करा उनका आर्शीवाद लेने से मां अपने भक्तों को आर्शीवाद अवश्य देती है। हिन्दू धर्म में अष्टiमी के दिन कन्याओं को भोजन कराए जाने की परम्परा है।
महागौरा के रुप में दुर्गा जी का स्वरुप
देवी महागौरा के शरीर बहुत गोरा है। महागौरा के वस्त्र और अभुषण श्वेत होने के कारण उन्हें श्वेताम्बरधरा भी कहा गया है। महागौरा की चार भुजाएं है जिनमें से उनके दो हाथों में डमरु और त्रिशुल है तथा अन्य दो हाथ अभय और वर मुद्रा में है। इनका वाहन गाय है। इनके महागौरा नाम पड़ने की कथा कुछ इस प्रकार है।
महागौरा नाम कैसे पड़ा
मान्यतानुसार भगवान शिव को पाने के लिए किये गए अपने कठोर तप के कारण माँ पार्वती का रंग काला और शरीर क्षीण हो गया था, तपस्या से प्रसन्न होकर जब भगवान शिव ने माँ पार्वती का शरीर गंगाजल से धोया तो वह विद्युत प्रभा के समान गौर हो गया। इसी कारण माँ को "महागौरी" के नाम से पूजते हैं।
माँ महागौरी का मंत्र
महागौरी की उपासना का मंत्र है-
श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दघान्महादेवप्रमोददा॥
महागौरी शुभं दघान्महादेवप्रमोददा॥
नवरात्र का आठवां दिन
नवरात्र के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा की जाती है। कई लोग इस दिन कन्या पूजन भी करते हैं। मां महागौरी की पूजा चैत्र नवरात्र में 14 अप्रैल, 2016 और शारदीय नवरात्र में 09 अक्टूबर, 2016 को होगी।
पूजा में उपयोगी खाद्य साम्रगी
अष्टमी तिथि के दिन भगवती को नारियल का भोग लगाना चाहिए। फिर नैवेद्य रूप वह नारियल ब्राह्मण को दे देना चाहिए। इसके फलस्वरूप उस पुरुष के पास किसी प्रकार का संताप नहीं आ सकता। श्री दुर्गा जी के आठवें स्वरूप महागौरी मां का प्रसिद्ध पीठ हरिद्वार के समीप कनखल नामक स्थान पर है।
Wednesday, 13 April 2016
Chaitra Navratri 2016 - दुर्गा जी का सातवां स्वरूप- कालरात्रि
सप्तम नवदुर्गा: माता कालरात्रि
दुर्गा जी का सातवां स्वरूप कालरात्रि है। इनका रंग काला होने के कारण ही इन्हें कालरात्रि कहते हैं। असुरों के राजा रक्तबीज का वध करने के लिए देवी दुर्गा ने अपने तेज से इन्हें उत्पन्न किया था। इनकी पूजा शुभ फलदायी होने के कारण इन्हें 'शुभंकारी' भी कहते हैं।
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन 'सहस्रार' चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभंकारी' भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।
देवी कालरात्रि का भयानक स्वरूप
देवी कालरात्रि का शरीर रात के अंधकार की तरह काला है इनके बाल बिखरे हुए हैं तथा इनके गले में विधुत की माला है। इनके चार हाथ है जिसमें इन्होंने एक हाथ में कटार तथा एक हाथ में लोहे कांटा धारण किया हुआ है। इसके अलावा इनके दो हाथ वरमुद्रा और अभय मुद्रा में है। इनके तीन नेत्र है तथा इनके श्वास से अग्नि निकलती है। कालरात्रि का वाहन गर्दभ(गधा) है।
कालरात्रि की उत्पत्ति की कथा
कथा के अनुसार दैत्य शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। इससे चिंतित होकर सभी देवतागण शिव जी के पास गए। शिव जी ने देवी पार्वती से राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा।
शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने दुर्गा का रूप धारण किया तथा शुंभ-निशुंभ का वध कर दिया। परंतु जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए। इसे देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया।
इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया।
माँ कालरात्रि का मंत्र
नवरात्र के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना इस मंत्र से की जा सकती है-
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता, लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा, वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा, वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
नवरात्र का सातवां दिन
मां कालरात्रि की पूजा 13 अप्रैल (चैत्र नवरात्र) और 08 अक्टूबर (शारदीय नवरात्र) को की जाएगी।
पूजा में उपयोगी खाद्य साम्रगी
सप्तमी तिथि के दिन भगवती की पूजा में गुड़ का नैवेद्य अर्पित करके ब्राह्मण को दे देना चाहिए। ऐसा करने से पुरुष शोकमुक्त हो सकता है।
विशेष
मान्यता है कि माता कालरात्रि की पूजा करने से मनुष्य समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। माता कालरात्रि पराशक्तियों (काला जादू) की साधना करने वाले जातकों के बीच बेहद प्रसिद्ध हैं। मां की भक्ति से दुष्टों का नाश होता है और ग्रह बाधाएं दूर हो जाती हैं।
Chaitra Navratri 2016 - कात्यायनी देवी दुर्गा जी का छठा अवतार हैं।
षष्ठी देवी: देवी कात्यायनी
दुर्गा जी का कात्यायनी अवतार:
कात्यायनी देवी दुर्गा जी का छठा अवतार हैं। शास्त्रों के अनुसार देवी ने कात्यायन ऋषि के घर उनकी पुत्री के रूप में जन्म लिया, इस कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ गया। नवरात्र के छठे दिन कात्यायनी देवी की पूरे श्रद्धा भाव से पूजा की जाती है।
कात्यायनी देवी का स्वरूप
दिव्य रुपा कात्यायनी देवी का शरीर सोने के समाना चमकीला है। चार भुजा धारी माँ कात्यायनी सिंह पर सवार हैं। अपने एक हाथ में तलवार और दूसरे में अपना प्रिय पुष्प कमल लिये हुए हैं। अन्य दो हाथ वरमुद्रा और अभयमुद्रा में हैं। इनका वाहन सिंह हैं। देवी कात्यायनी के नाम और जन्म से जुड़ी एक कथा प्रसिद्ध है।
क्यों पड़ा देवी का नाम कात्यायनी
एक कथा के अनुसार एक वन में कत नाम के एक महर्षि थे उनका एक पुत्र था जिसका नाम कात्य रखा गया। इसके पश्चात कात्य गोत्र में महर्षि कात्यायन ने जन्म लिया। उनकी कोई संतान नहीं थी। मां भगवती को पुत्री के रूप में पाने की इच्छा रखते हुए उन्होंने पराम्बा की कठोर तपस्या की।
महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें पुत्री का वरदान दिया। कुछ समय बीतने के बाद राक्षस महिषासुर का अत्याचार अत्यधिक बढ़ गया। तब त्रिदेवों के तेज से एक कन्या ने जन्म लिया और उसका वध कर दिया। कात्य गोत्र में जन्म लेने के कारण देवी का नाम कात्यायनी पड़ गया।
देवी कात्यायनी का मंत्र
सरलता से अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने वाली माँ कात्यायनी का उपासना मंत्र है-
चंद्र हासोज्ज वलकरा शार्दू लवर वाहना|
कात्यायनी शुभं दद्या देवी दानव घातिनि||
कात्यायनी शुभं दद्या देवी दानव घातिनि||
पूजा में उपयोगी खाद्य साम्रगी:
षष्ठी तिथि के दिन देवी के पूजन में मधु का महत्व बताया गया है। इस दिन प्रसाद में मधु यानि शहद का प्रयोग करना चाहिए। इसके प्रभाव से साधक सुंदर रूप प्राप्त करता है।
नवरात्र का छठा दिन
माता कात्यायनी की पूजा वर्ष 2016 में चैत्र नवरात्र के दौरान 12 अप्रैल और शारदीय नवरात्र में 07 अक्टूबर को की जाएगी।
विशेष
मां कात्यायनी अमोघ फलदायिनी मानी गई हैं। शिक्षा प्राप्ति के क्षेत्र में प्रयासरत भक्तों को माता की अवश्य उपासना करनी चाहिए।
Tuesday, 12 April 2016
Chaitra Navratri 2016 - पांचवा दिन मां स्कन्दमाता के नाम
पंचम नवदुर्गा: माता स्कंदमाता
दुर्गा जी का पांचवां अवतार- स्कंदमाता
नवरात्र के पांचवे दिन माँ दुर्गा के पांचवे स्वरुप भगवान स्कन्द की माता अर्थात "माँ स्कंदमाता" की उपासना की जाती है। कुमार कार्तिकेय को ही "भगवान स्कन्द" के नाम से जाना जाता है। वर्ष 2016 में मां स्कंदमाता की पूजा 11 अप्रैल (चैत्र नवरात्र) और 06 अक्टूबर (शारदीय नवरात्र) को की जाएगी।
प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में पाँचवें दिन इसका जाप करना चाहिए।या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।नवरात्र के पांचवे दिन मां स्कंदमाता की पूजा होती है। मां के इस स्वरूप की पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मां भक्त के सारे दोष और पाप दूर कर देती है। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। भगवान स्कंद 'कुमार कार्तिकेय' नाम से भी जाने जाते हैं।ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं। इनके दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा, जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उसमें कमल पुष्प है। बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है।सिंह भी इनका वाहन है। नवरात्रि-पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है।नवदुर्गा के पांचवे स्वरूप स्कंदमाता की अलसी औषधी के रूप में भी पूजा होती है। स्कंद माता को पार्वती एवं उमा के नाम से भी जाना जाता है। अलसी एक औषधि से जिससे वात, पित्त, कफ जैसी मौसमी रोग का इलाज होता है। इस औषधि को नवरात्रि में माता स्कंदमाता को चढ़ाने से मौसमी बीमारियां नहीं होती। साथ ही स्कंदमाता की आराधना के फल स्वरूप मन को शांति मिलती है।
स्कंदमाता का स्वरूप
स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं जिनमें से माता ने अपने दो हाथों में कमल का फूल पकड़ा हुआ है। उनकी एक भुजा ऊपर की ओर उठी हुई है जिससे वह भक्तों को आशीर्वाद देती हैं तथा एक हाथ से उन्होंने गोद में बैठे अपने पुत्र स्कंद को पकड़ा हुआ है। इनका वाहन सिंह है।
दुर्गा जी का ममता स्वरूप हैं स्कंदमाता
कार्तिकेय को देवताओं का सेनापति मना जाता है तथा माता को अपने पुत्र स्कंद से अत्यधिक प्रेम है। जब धरती पर राक्षसों का अत्याचार बढ़ता है माता अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का नाश करती हैं। स्कंदमाता को अपना नाम अपने पुत्र के साथ जोड़ना बहुत अच्छा लगता है। इसलिए इन्हें स्नेह और ममता की देवी माना जाता है।
माँ स्कंदमाता का मंत्र (Mata Skandmata Mantra)
माँ स्कंदमाता का वाहन सिंह है। इस मंत्र के उच्चारण के साथ माँ की आराधना की जाती है"
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥
इसके अतिरिक्त एक अन्य मंत्र है:
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कन्दमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
पूजा में उपयोगी खाद्य साम्रगी
पंचमी तिथि के दिन पूजा करके भगवती दुर्गा को केले का भोग लगाना चाहिए और यह प्रसाद ब्राह्मण को दे देना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य की बुद्धि का विकास होता है।
Monday, 11 April 2016
Chaitra Navratri 2016 - माँ भगवती देवी मां कूष्माण्डा
चौथे दिन होती है मां कूष्माण्डा की पूजा
भोले शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए माता ने महान व्रत किया था अतः नवरात्र में महादेव की पूजा अवश्य करें क्योंकि इनकी पूजा न होने से देवी की कृपा नहीं मिलती है। प्रतिदिन कम से कम ग्यारह माला शिव पंचाक्षरी मंत्र “नमः शिवाय” की अवश्य करें एवं शिवलिंग पर जल चढ़ाये ।
नवरात्री दुर्गा पूजा चौथे तिथि – माता कूष्माण्डा की पूजा :
मां दुर्गा के नव रूपों में चौथा रूप है कूष्माण्डा देवी का । दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा जी की पूजा का विधान है । देवी कूष्माण्डा अपनी मन्द मुस्कान से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है ।
इस दिन भक्त का मन ‘अनाहत’ चक्र में स्थित होता है, अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और शांत मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा करनी चाहिए. संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है ।
देवी कुष्मांडा कथा :
दुर्गा सप्तशती के कवच में लिखा है कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत: संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कूष्मांडा. इसका अर्थ है वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कूष्माण्डा हैं । देवी कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं । जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी उस समय अंधकार का साम्राज्य था ।
देवी कुष्मांडा जिनका मुखमंडल सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है, उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ । देवी का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यें सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं।
देवी कूष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं अत: इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है. देवी अपने इन हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र तथा गदा है । देवी के आठवें हाथ में बिजरंके (कमल फूल का बीज) का माला है है, यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि देने वाला है । देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं। जो भक्त श्रद्धा पूर्वक देवी की उपासना दुर्गा पूजा के चौथे दिन करता है उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है।
देवी कुष्मांडा पूजा विधि :
जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्माण्डा की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को अनहत चक्र (Anhat chakra) में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए । इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कूष्माण्डा सफलता प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है।
दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा की पूजा का विधान उसी प्रकार है जिस प्रकार देवी ब्रह्मचारिणी और चन्द्रघंटा की पूजा की जाती है । इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं । इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करे: पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर इस मंत्र का ध्यान करें।
“सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च. दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे..”
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।
Sunday, 10 April 2016
Chaitra Navratri 2016 - माँ भगवती देवी माता चंद्रघंटा
माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है।
दुर्गा जी का चंद्रघंटा अवतार
दुर्गा जी का तीसरा अवतार चंद्रघंटा हैं। देवी के माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र होने के कारण इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। दअपने मस्तक पर घंटे के आकार के अर्धचन्द्र को धारण करने के कारण माँ "चंद्रघंटा" नाम से पुकारी जाती हैं। अपने वाहन सिंह पर सवार माँ का यह स्वरुप युद्ध व दुष्टों का नाश करने के लिए तत्पर रहता है। चंद्रघंटा को स्वर की देवी भी कहा जाता है।
देवी चंद्रघंटा का स्वरूप
देवी चंद्रघंटा का स्वरूप बहुत ही अद्भुत है। इनके दस हाथ हैं जिनमें इन्होंने शंख, कमल, धनुष-बाण, तलवार, कमंडल, त्रिशूल, गदा आदि शस्त्र धारण कर रखे हैं। इनके माथे पर स्वर्णिम घंटे के आकार का चांद बना हुआ है और इनके गले में सफेद फूलों की माला है। चंद्रघंटा की सवारी सिंह है।
चंद्रघंटा देवी की मान्यता
देवी चंद्रघंटा का स्वरूप सदा ही युद्ध के लिए उद्यत रहने वाला दिखाई देता है। माना जाता है कि इनके घंटे की तेज व भयानक ध्वनि से दानव, अत्याचारी और राक्षस डरते हैं। देवी चंद्रघंटा की साधन करने वालों को अलौकिक सुख प्राप्त होता है तथा दिव्य ध्वनि सुनाई देती है।
माँ चंद्रघंटा का मंत्र
स्वर्ण के समान उज्जवल वर्ण वाली माँ चंद्रघंटा की पूजा का यह मंत्र है-
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यां चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥
नवरात्र का तीसरा दिन :
मां चन्द्रघंटा की पूजा नवरात्र के तीसरे दिन की जाती है। साल 2016 में चैत्र नवरात्र के दौरान मां चन्द्रघंटा जी की पूजा-अर्चना 10 अप्रैल को की जाएगी। शारदीय नवरात्र में माता की पूजा 04 अक्टूबर को होगी।
पूजा में उपयोगी खाद्य साम्रगी: तृतीया के दिन भगवती की पूजा में दूध की प्रधानता होनी चाहिए और पूजन के उपरांत वह दूध ब्राह्मण को देना उचित माना जाता है। इस दिन सिंदूर लगाने का भी रिवाज है।
विशेष:
इनकी उपासना से मनुष्य समस्त सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाता है।
Saturday, 9 April 2016
Chaitra Navratri 2016 - माँ भगवती देवी ब्रह्मचारिणी माता
भगवती माँ दुर्गा की नव शक्तियों का दूसरा स्वरुप ब्रह्मचारिणी का है !
यंहा 'ब्रह्म ' शब्द का अर्थ तपस्या है ! ब्रह्मचारिणी - तप का आचरण करने वाली - वेदस्तत्वं तपो ब्रह्म - वेद, तत्व और तप ' ब्रह्म शब्द के अर्थ है ! ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरुप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है ! इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएं हाथ में कमण्डलु रहता है ! अपने पूर्वजन्म में ये जब हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थी तब नारद के उपदेश से इन्होने भगवान् शंकर जी को पति - रूप में प्राप्त करने के लिए अत्यंत कठिन तपस्या की थी ! इस दुस्कर तपस्या के कारण यह तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से पूजित हुई ! एक हज़ार वर्ष तक उन्होंने केवल फल मूल खाकर व्यतीत किये थे ! सौ वर्षो तक केवल शाक पर निर्वाह किया था ! कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के भयानक कष्ट सहे ! इस कठिन तपस्या के पश्चात् तीन हज़ार वर्षों तक केवल जमीन पर टूटकर गिरे हुए बेलपत्रो को खाकर वह भगवान् शंकर की आराधना करती रही ! इसके बाद उन्होंने सूखे बेलपत्रो को भी खाना छोड़ दिया ! कई हज़ार वर्षो तक वह निर्जल और निराहार तपस्या करती रही ! पत्तों को खाना छोड़ने के कारण उनका एक नाम अपर्णा भी पड़ गया ! कई हज़ार वर्षो की इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का वह पूर्वजन्म का शरीर एक दम क्षीण हो गया ! उनकी यह दश देखकर उनकी माँ मैना अत्यंत दुखी हो उठी ! उन्होंने उस कठिन तपस्या से विरत करने के लिए आवाज दी - उमा नहीं , अब नहीं ! तब से देवी ब्रह्मचारिणी का नाम उमा भी पड़ गया ! उनकी इस तपस्या से तीनो लोको में हाहाकार मच गया ! देवता , ऋषि , मुनि , सिद्ध्गन सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूत पूर्व पुन्यकृत बताते हुए उनकी सराहना तथा गुणगान करने लगे ! अंत में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें संबोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा - हे देवी आज तक किसी ने ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी ! ऐसी तपस्या तुम्ही से संभव थी ! तुम्हारे इस अलौकिक कृत्य की चारों दिशाओं में जय जयकार हो रही है ! तुम्हारी मनोकामना अवश्य ही पूर्ण होगी ! भगवान् शिव जी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे ! अब तुम अपनी तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ ! शीघ्र ही तुम्हारे पिता तुम्हे बुलाने आ रहे हैं ! माँ दुर्गा जी का यह दूसरा स्वरुप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है ! इनकी पूजा - उपासना से मनुष्य में तप , त्याग , वैराग्य , सदाचार , संयम , पर उपकार की वृद्धि होती हैं ! जीवन के कठिन समय में भी विचलित नहीं होते ! माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्ध और विजय की प्राप्ति होती हैं ! माँ भगवती देवी ब्रह्मचारिणी माता के श्री चरणों में सत सत नमन !
Friday, 8 April 2016
Chaitra Navratri 2016 - शैलपुत्री देवी
देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं। दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं।
ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है।
शोभा
वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम 'सती' था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था।
कथा
एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया, किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।
अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किए हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।'
शंकरजी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहाँ जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकरजी ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी।
सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं।
केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।
परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे।
यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वे अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया।
वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होअपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री' नाम से विख्यात हुर्ईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।
उपसंहार
'शैलपुत्री' देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं।
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