एक व्यक्ति देश, धर्म, संस्कृति और संतों की खूब निंदा करता था। उसने अपनी टोली बना ली थी एवं भगवद्भक्तों, सज्जनों को व्यर्थ ही सताता था। यदि किसी को तामसी प्रकृति कैसी होती है यह देखना हो तो बस उसी को देख ले। राक्षसी एवं मोहिनी प्रकृति का मानो वह मूर्तिमान स्वरूप था। एक महात्मा अपने शिष्यों के साथ विचरण करते हुए उस क्षेत्र में पहुँचे । त्राहिमाम्……त्राहिमाम् पुकार रहे लोगों ने उन्हें अपनी व्यथा बतायी । महात्मा अपने शिष्यों से बोले :
‘‘ऋषिकुमारो ! मैंने तुम्हें जो शिक्षा दी है, उसको व्यवहार में लाने का समय अब आ गया है । तुम लोग मिलकर इन लोगों की व्यथा दूर करो।“
शिष्य उस क्षेत्र में जाकर सत्प्रचार करने लगे परंतु वे जहाँ भी जाते निंदकों की टोली के लोग नशा करके वहाँ आ जाते और उन्हें गालियाँ देते, अनर्गल वचन बोलते, यहाँ तक कि पत्थर भी मारते । कुछ ही दिनों में सभी शिष्य वापस आये और महात्मा से बोले : ‘‘गुरुजी ! हमने खूब प्रयास किये मगर निंदकों की वह टोली और उनका वह मुखिया... मानो हमारे धैर्य की परीक्षा लेने की ठान बैठे हों । वे सर्वहितकारी सनातन संस्कृति की जडें उखाडने का प्रण ले बैठे हैं।“
महात्मा बोले : ‘‘मैंने तुम्हें चंदन बनने की शिक्षा दी है । जो कुल्हाडी चंदन को काटती है, वह भी समय पाकर सुगंधित हो जाती है । कंचन की ही अग्नि - परीक्षा ली जाती है । धैर्य की कठिन कसौटी पर खरे उतरनेवालों को ही ‘धीर’ पद (अडिग आत्मपद) की प्राप्ति होती है । जब वे लोग बुराई का मार्ग नहीं छोड रहे हैं तो तुम भलाई का मार्ग बीच में ही छोडकर वापस कैसे आ गये ? क्या कभी बुराई भलाई से अधिक बलशाली हो सकती है ? आर्यवीरों ! मुझे विश्वास है दृढता के मामले में तुम उनसे कदापि कम नहीं साबित हो सकते ! अपनी महिमा में जागो !”
शिष्यों की अंतरात्मा जागृत हुई । वे आपस में चर्चा करने लगे कि ‘‘एक अकेले निगुरे व्यक्ति और उसकी टोली में ऐसी दृढता हो सकती है तो ऐसे महान गुरु के हम शिष्यों में कितनी होनी चाहिए ! हमारे गुरुदेव ने कितनों का जीवन परिवर्तित किया है तो हम उनके सिद्धांतों की ध्वजा ऐसे क्षेत्र में भी क्यों नहीं फहरा सकते! अब हमें सफलता पाने तक मैदान नहीं छोडना है।"
“ बाधाएँ कब बाँध सकी हैं पथ पे चलनेवालों को।
विपदाएँ कब रोक सकी हैं आगे बढने वालों को।।“
वे दोबारा उस क्षेत्र में गये और वहाँ देहभान भूलकर, निर्भय हो कर ऐसे तो अपने गुरु के सिद्धांत के सत्प्रचार में जुट गये मानो सिद्धांतमय हो गये । जैसे चट्टानों को तोडकर नदी का प्रवाह अपना मार्ग बना लेता है और पत्थरों को चीर के पीपल अपनी जडें जमा लेता है वैसे ही वे दुष्प्रचार के उस कलिकालमय वातावरण में भी सत्प्रचार की सुवास फैलाने में सफल हो गये । एक-एक करके निंदक-टोली के मुखिया के सभी साथियों ने उसका साथ छोड दिया और आखिर वह अकेला पड गया । पूरे क्षेत्र में उन महात्मा के नाम की जयजयकार होने लगी । उस दुरात्मा को अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा । वह जाकर उन महात्मा के श्रीचरणों में पड गया और अपने किये की माफी माँगते हुए गिडगिडाने लगा । महात्मा की करुणा पाकर वह उनका शिष्य बन गया और उसका पूरा जीवन ही परिवर्तित हो गया । चंदन अपनी महिमा में डट गया था, अब कुल्हाडी भी चंदन की सुवास महकाने लगी थी । उस क्षेत्र से विदाई की वेला में महात्मा के चेहरे पर मंद - मंद मुस्कान छलक रही थी और शिष्यों के हृदय में उमड रहा था गुरु - सिद्धांत की अजेयता का विलक्षण अनुभव !
देश, धर्म और संस्कृति का संरक्षण एवं पुनरुद्धार करनेवाले ऐसे महागुरु कभी - कभार धरती पर आते हैं और उनसे निभानेवाले सुशिष्य ही ऐसे दैवी कार्य के जागृत प्रहरी बन जाते हैं । सब कुछ सहते हुए सबका मंगल चाहने वाले इन्हीं के द्वारा समाजोद्धार का महत्कार्य सम्पन्न होता रहता है । पर कृतकृत्य तो वही समाज हो पाता है जो उन्हें समझ पाता है जीवित महापुरुष की हयाती में ही उनसे लाभ ले पाता है । अन्यथा बाद में तो केवल पश्चात्ताप ही शेष रह जाता है।
साभार :- लोक कल्याण सेतु
om
ReplyDelete