Monday, 27 March 2017

Somvati Amavasya


२७ मार्च - सोमवती अमावस्या 

(सुबह 10:44 से 28 मार्च सूर्योदय तक)



इस दिन किया जाने वाला कोई भी शुभ कर्म जैसे जप, दान व मौनपूर्वक गंगास्नान, ध्यान, उपवास आदि अक्षय फलदायी होता है। शास्त्रों में यह अमावस्या दरिद्रता निवारक कही गयी है। तुलसीजी की 108 परिक्रमा व "श्रीहरि.....श्रीहरि......श्रीहरि" का जप करने से धन की कमी दूर होती है। अगर माला से जप कर रहे हैं तो एक मनके पर तीन बार "श्रीहरि" मंत्र का जप करने से जप पूरा माना जाता है ऐसा करके ही माला आगे घुमायेँ - पूज्य बापूजी

Thursday, 23 March 2017

Papmochani Ekadashi

२४ मार्च - पापमोचनी एकादशी




महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से चैत्र (गुजरात / महाराष्ट्र के अनुसार फाल्गुन ) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की, तो वे बोले : ‘राजेन्द्र ! मैं तुम्हें इस विषय में एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर महर्षि लोमश ने कहा था ।’


मान्धाता ने पूछा : भगवन् ! मैं लोगों के हित की इच्छा से यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्र मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है, उसकी क्या विधि है तथा उससे किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया ये सब बातें मुझे बताइये ।


लोमशजी ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकाल की बात है । अप्सराओं से सेवित चैत्ररथ नामक वन में, जहाँ गन्धर्वों की कन्याएँ अपने किंकरो के साथ बाजे बजाती हुई विहार करती हैं, मंजुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर मेघावी को मोहित करने के लिए गयी । वे महर्षि चैत्ररथ वन में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । मंजुघोषा मुनि के भय से आश्रम से एक कोस दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंग से वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी । मुनिश्रेष्ठ मेघावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस सुन्दर अप्सरा को इस प्रकार गान करते देख बरबस ही मोह के वशीभूत हो गये । मुनि की ऐसी अवस्था देख मंजुघोषा उनके समीप आयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिंगन करने लगी । मेघावी भी उसके साथ रमण करने लगे । रात और दिन का भी उन्हें भान न रहा । इस प्रकार उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो गये । मंजुघोषा देवलोक में जाने को तैयार हुई । जाते समय उसने मुनिश्रेष्ठ मेघावी से कहा: ‘ब्रह्मन् ! अब मुझे अपने देश जाने की आज्ञा दीजिये ।’


मेघावी बोले : देवी ! जब तक सवेरे की संध्या न हो जाय तब तक मेरे ही पास ठहरो। अप्सरा ने कहा : विप्रवर ! अब तक न जाने कितनी ही संध्याएँ चली गयीं ! कृपा करके बीते हुए समय का विचार तो कीजिये !


लोमशजी ने कहा : राजन् ! अप्सरा की बात सुनकर मेघावी चकित हो उठे । उस समय उन्होंने बीते हुए समय का हिसाब लगाया तो मालूम हुआ कि उसके साथ रहते हुए उन्हें सत्तावन वर्ष हो गये । उसे अपनी तपस्या का विनाश करनेवाली जानकर मुनि को उस पर बड़ा क्रोध आया । उन्होंने शाप देते हुए कहा: ‘पापिनी ! तू पिशाची हो जा ।’ मुनि के शाप से दग्ध होकर वह विनय से नतमस्तक हो बोली : ‘विप्रवर ! मेरे शाप का उद्धार कीजिये । सात वाक्य बोलने या सात पद साथ -साथ चलने मात्र से ही सत्पुरुषों के साथ मैत्री हो जाती है । ब्रह्मन् ! मैं तो आपके साथ अनेक वर्ष व्यतीत किये हैं, अत: स्वामिन् ! मुझ पर कृपा कीजिये ।’


मुनि बोले : भद्रे ! क्या करुँ ? तुमने मेरी बहुत बड़ी तपस्या नष्ट कर डाली है। फिर भी सुनो। चैत्र कृष्णपक्ष में जो एकादशी आती है उसका नाम है ‘पापमोचनी।’ वह शाप से उद्धार करने वाली तथा सब पापों का क्षय करने वाली है । सुन्दरी ! उसी का व्रत करने पर तुम्हारी पिशाचता दूर होगी ।


ऐसा कहकर मेघावी अपने पिता मुनिवर च्यवन के आश्रम पर गये । उन्हें आया देख च्यवन ने पूछा : ‘बेटा ! यह क्या किया ? तुमने तो अपने पुण्य का नाश कर डाला !’


मेघावी बोले : पिताजी ! मैंने अप्सरा के साथ रमण करने का पातक किया है । अब आप ही कोई ऐसा प्रायश्चित बताइये, जिससे पातक का नाश हो जाय ।


च्यवन ने कहा : बेटा ! चैत्र कृष्णपक्ष में जो ‘पापमोचनी एकादशी’ आती है, उसका व्रत करने पर पापराशि का विनाश हो जायेगा ।


पिता का यह कथन सुनकर मेघावी ने उस व्रत का अनुष्ठान किया । इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे पुन: तपस्या से परिपूर्ण हो गये । इसी प्रकार मंजुघोषा ने भी इस उत्तम व्रत का पालन किया । ‘पापमोचनी’ का व्रत करने के कारण वह पिशाच योनि से मुक्त हुई और दिव्य रुपधारिणी श्रेष्ठ अप्सरा होकर स्वर्गलोक में चली गयी ।


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! जो श्रेष्ठ मनुष्य ‘पापमोचनी एकादशी’ का व्रत करते हैं उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । इसको पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है । ब्रह्महत्या, सुवर्ण की चोरी, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करने वाले महापातकी भी इस व्रत को करने से पापमुक्त हो जाते हैं । यह व्रत बहुत पुण्यमय है ।

Wednesday, 22 March 2017

"योगसिद्ध ब्रह्मनिष्ठ पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज"
२३ मार्च - अवतरण दिवस


"कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, वसुन्धरा पुण्यवती च येन।"


"जिस कुल में महापुरुष अवतरित होते हैं वह कुल पवित्र, जिस माता के गर्भ से उनका जन्म होता है वह माता कृतार्थ एवं जिस जगह पर वे जन्म लेते हैं वह वसुन्धरा पुण्यशालिनी हो जाती है।"


बालक लीलाराम के बचपन की एक घटना है:-जिस गाँव में उनका जन्म हुआ था, वह महराब चांडाई नामक गाँव बहुत छोटा था। उस जमाने में दुकान में बेचने के लिए सामान टंडेबाग से लाना पड़ता था। उनके चाचा भाई लखुमल वस्तुओं की सूची एवं पैसे देकर बालक लीलाराम को खरीदी करने के लिए भेजते थे। एक समय मारवाड़ एवं थार में बड़ा अकाल पड़ा था। लखुमलजी ने पैसे देकर बालक लीलाराम को दुकान के लिए खरीदी करने को भेजा। लीलाराम खरीदी करके, माल-सामान की दो बैलगाड़ियाँ भरकर अपने गाँव लौट रहे थे। गाड़ियों में आटा, दाल, चावल, गुड़, घी आदि था। रास्ते में एक जगह पर गरीब, पीड़ित,अनाथ एवं भूखे लोगों ने लीलाराम को घेर लिया। दुर्बल एवं भूख से व्याकुल लोग जब अनाज के लिए गिड़गिड़ाने लगे तब लीलाराम का हृदय पिघल उठा। वे सोचने लगे, "इस माल को मैं भाई की दुकान पर ले जाऊँगा। वहाँ से खरीदकर भी मनुष्य ही खायेंगे न....! ये सब भी तो मनुष्य ही हैं। बाकी बची पैसे के लेन-देन की बात... तो प्रभु के नाम पर भले ये लोग ही खा लें।"


बालक लीलाराम ने बैलगाड़ियाँ खड़ी करवायीं और उन क्षुधापीड़ित लोगों से कहाः "यह रहा सब सामान। तुम लोग इसमें से भोजन बना कर खा लो।"


भूख से कुलबुलाते लोगों ने तो दोनों बैलगाड़ियों को तुरंत ही खाली कर दिया। लीलाराम भय से काँपते, थरथराते गाँव पहुँचे। खाली बोरों को गोदाम में रख दिया। कुँजियाँ चाचा लखुमल को दे दीं। 


लखुमलजी ने पूछाः"माल लाया?"


"हाँ।"


"कहाँ है?"


"गोदाम में।"


"अच्छा बेटा ! जा, तू थक गया होगा। सामान का हिसाब कल देख लेंगे।"


दूसरे दिन लीलाराम दुकान पर गये ही नहीं। उन्हें तो पता था कि गोदाम में क्या माल रखा है। वे घबराये, काँपने लगे। उनको काँपते हुए देखकर लखुमल ने कहाः "अरे ! तुझे बुखार आ गया? आज घर पर ही आराम कर।"


एक दिन.... दो दिन.... तीन दिन..... बालक लीलाराम बुखार के बहाने दिन बिता रहे हैं और भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं:-


"हे भगवान! अब तो तू ही जान। मैं कुछ नहीं जानता। हे करन-करावनहार स्वामी! तू ही सब कराता है। तूने ही भूखे लोगों को खिलाने की प्रेरणा दी। अब सब तेरे ही हाथ में है, प्रभु ! तू मेरी लाज रखना। मैं कुछ नहीं, तू ही सब कुछ है...."


एक दिन शाम को लखुमलजी अचानक लीलाराम के पास आये और बोलेः''लीला.... लीला ! तू कितना अच्छा माल लेकर आया है !"


लीलाराम घबराये। काँप उठे कि "अच्छा माल.... अच्छा माल कहकर अभी लखुमल मेरे कान पकड़कर मारेंगे।" वह हाथ जोड़कर बोलेः"मेरे से गलती हो गयी।"


"नहीं बेटा ! गलती नहीं हुई। मुझे लगता था कि व्यापारी तुझे कहीं ठग न लें। ज्यादा कीमत पर घटिया माल न पकड़ा दें किन्तु सभी चीजें बढ़िया हैं। पैसे तो नहीं खूटे ना?"


"नहीं, पैसे तो पूरे हो गये और माल भी पूरा हो गया।""माल किस तरह पूरा हो गया?"


बालक लीलाराम जवाब देने में घबराने लगे तो लखुमल ने कहाः "नहीं बेटा ! सब ठीक है। चल, तुझे बताऊँ।"


ऐसा कहकर लखुमलजी लीलाराम का हाथ पकड़कर गोदाम में ले गये। लीलाराम ने वहाँ जाकर देखा तो सभी खाली बोरे माल-सामान से भरे हुए मिले ! उनका हृदय भावविभोर हो उठा और गदगद होते हुए उन्होंने परमात्मा को धन्यवाद दियाः "प्रभु ! तू कितना दयालु है.... कितना कृपालु है !"


लीलाराम जी ने तुरंत ही निश्चय कियाः "जिस परमात्मा ने मेरी लाज रखी है.... गोदाम में बाहर से ताला होने पर भी भीतर के खाली बोरों को भर देने की जिसमें शक्ति है, अब मैं उसी परमात्मा को खोजूँगा..... उसके अस्तित्व को जानूँगा.... उसी प्यारे को अब अपने हृदय में प्रकट करूँगा।"


कैसे बने बालक लीलाराम से साईं लीलाशाहजी महाराज?


पढ़िये - "जीवन सौरभ"- साईं लीलाशाहजी महाराज की जीवनकथा।

Tuesday, 21 March 2017

निगुरा होता हिय का अँधा


निगुरा होता हिय का अन्धा, 
खूब करे संसार का धन्धा।
जम का बने मेहमान, 
निगुरे नहीं रहना


"One who is without a Guru is blind within. He remains engrossed in the worldly affairs and finally falls prey to YAMA. One should never remain without a SADGURU" 

Sunday, 19 March 2017

किसमें करें आस्था और किसका करें विवेक?

"किसमें करें आस्था और किसका करें विवेक?"
पूज्य संतश्री आशाराम बापूजी का एक और गहरा सत्संग। 
अवश्य सुनें :-


Thursday, 16 March 2017

संत आशारामजी बापू मामले पर बोले "ईशा फाउंडेशन" के सद्गुरु-जग्गी वासुदेव "मीडिया की भूमिका संदिग्ध।"


Arnab Goswami asks "Sadhguru" - Jaggi Vasudev to speak on Sant Shri Asharam Bapu Ji at Rotary Club's event, Delhi on 6th March 2017.

I have never met Asharam Bapu. I only saw him on the news channels. and.....I... I mean if law of the country is taking charge of it, it's not for me to make comments because I know the local media, where I live, in the last 25 years, they have been running certain segments, not everybody, certain segments of the media, you know I have stolen 7000 Kidneys, I killed over 100 elephants and I have destroyed an entire rain forest and anything that a man can do and cannot do I have done ok... so when this is happening to me, I don't want to comment about somebody, we don't know whats happening to them because in this country anybody can write anything, say anything because there is no way to fix them with law, there is no defamatory stuff that you can do and I am telling you mean stream television channels in TamilNadu have said I have stolen 7000 Kidneys. I said at least increase the number for my stature, at least make it 7 lacs or 70 lacs, why 7000... you are just degrading me and that guy comes, you know, journalist comes and asks me is it true that you are exporting Kidneys to America. I said no I am having for breakfast. so when I see this I don't want to comment on somebody because we don't know who is running for them...

Wednesday, 15 March 2017

Whom do you ruminate on within your heart?


Whom do you ruminate on within your heart? Whom do you think about in your mind? What is the first thought that comes to your mind when you wake up from your sleep in the middle of night?

Pujya Asharam Bapuji states in his discourses, "Watchfulness is the key to Sadhana. Be alert throughout the day, even while working, so as not to allow unsavoury thoughts or resolves to creep in for any rhyme or reason. Never be lenient towards any of your faults, shortcomings or depraved thinking. You must not overlook your vices rather do expiate them without fail by administering some sort of punishment on yourself."

He says, "Our actions themselves reflect whether pure and auspicious thoughts are increasing. If our behaviour and actions are becoming virtuous, our life is progressing towards Real Happiness."



Monday, 13 March 2017

#HappyHoli - #VedicHoli with Pujya Asharam Bapu Ji

गुरुदेव संतश्री आशारामजी बापू 

के साथ खेली होली की यादें


Friday, 10 March 2017

Pradhan Times: Millions of Women Followers Demand Justice

Nationwide unity of women demanding only one thing:

"Release INNOCENT Asharam Bapu Ji and 
Narayan Prem Sai immediately." 
#महिला_उत्थान_AnInitiative

Is it fair to keep "INNOCENTS" in Jail?

Must read "Pradhan Times"-

Tuesday, 7 March 2017

Amalaki Ekadashi


आमलकी एकादशी - 8 मार्च




युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा : श्रीकृष्ण ! मुझे फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम और माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले: महाभाग धर्मनन्दन ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है । इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति कराने वाला है । राजा मान्धाता ने भी महात्मा वशिष्ठजी से इसी प्रकार का प्रश्न पूछा था, जिसके जवाब में वशिष्ठजी ने कहा था :-

‘महाभाग ! भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक बिन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा । उसी से आमलक (आँवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है । इसी समय प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया और ब्रह्माजी ने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंतःकरण वाले महर्षियों को जन्म दिया । उनमें से देवता और ॠषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिय आमलक का वृक्ष था । महाभाग ! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ क्योंकि उस वृक्ष के बारे में वे नहीं जानते थे । उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई: ‘महर्षियो ! यह सर्वश्रेष्ठ आमलक का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है । इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है । स्पर्श करने से इससे दुगना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है । यह सब पापों को हरनेवाला वैष्णव वृक्ष है । इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं । आमलक सर्वदेवमय है । अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है । इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलक का सेवन करना चाहिए ।’

ॠषि बोले : आप कौन हैं ? देवता हैं या कोई और ? हमें ठीक ठीक बताइये।

पुन : आकाशवाणी हुई : जो सम्पूर्ण भूतों के कर्त्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूँ।

देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर वे ॠषिगण भगवान की स्तुति करने लगे । इससे भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले : ‘महर्षियो ! तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ ?

ॠषि बोले : भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरुपी फल प्रदान करनेवाला हो ।

श्रीविष्णुजी बोले : महर्षियो ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त एकादशी हो तो वह महान पुण्य देनेवाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है । इस दिन आँवले के वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिए । इससे मनुष्य सब पापों से छुट जाता है और सहस्र गोदान का फल प्राप्त करता है । विप्रगण ! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है, जिसे मैंने तुम लोगों को बताया है ।

ॠषि बोले : भगवन् ! इस व्रत की विधि बताइये । इसके देवता और मंत्र क्या हैं ? पूजन कैसे करें? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है?

भगवान श्रीविष्णुजी ने कहा : द्विजवरो ! इस एकादशी को व्रती प्रात:काल दन्तधावन करके यह संकल्प करे कि ‘ हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दुसरे दिन भोजन करुँगा । आप मुझे शरण में रखें ।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, गुरुपत्नीगामी तथा मर्यादा भंग करनेवाले मनुष्यों से वह वार्तालाप न करे । अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुएँ पर अथवा घर में ही स्नान करे । स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये ।

मृत्तिका लगाने का मंत्र:-
"अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।
मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम्॥"

वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था । मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापों को हर लो ।’

स्नान का मंत्र:-
"त्वं मात: सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्।
स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नम:॥
स्नातोSहं सर्वतीर्थेषु ह्रदप्रस्रवणेषु च्।
नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत्॥"

'जल की अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिए जीवन हो । वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जाति के जीवों का भी रक्षक है । तुम रसों की स्वामिनी हो । तुम्हें नमस्कार है । आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरों में स्नान कर चुका । मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देनेवाला हो ।’

विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह परशुरामजी की सोने की प्रतिमा बनवाये । प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिए । स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे । इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्ष के पास जाये । वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे । शुद्ध की हुई भूमि में मंत्र पाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे । कलश में पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे । श्वेत चन्दन से उसका लेपन करे । उसके कण्ठ में फूल की माला पहनाये । सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये । जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे । तात्पर्य यह है कि सब ओर से सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करे । पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे । कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे श्रेष्ठ लाजों(खीलों) से भर दे । फिर उसके ऊपर परशुरामजी की मूर्ति (सुवर्ण की) स्थापित करे।

‘विशोकाय नम:’ कहकर उनके चरणों की,
‘विश्वरुपिणे नम:’ से दोनों घुटनों की,
‘उग्राय नम:’ से जाँघो की,
‘दामोदराय नम:’ से कटिभाग की,
‘पधनाभाय नम:’ से उदर की,
‘श्रीवत्सधारिणे नम:’ से वक्ष: स्थल की,
‘चक्रिणे नम:’ से बायीं बाँह की,
‘गदिने नम:’ से दाहिनी बाँह की,
‘वैकुण्ठाय नम:’ से कण्ठ की,
‘यज्ञमुखाय नम:’ से मुख की,
‘विशोकनिधये नम:’ से नासिका की,
‘वासुदेवाय नम:’ से नेत्रों की,
‘वामनाय नम:’ से ललाट की,
‘सर्वात्मने नम:’ से संपूर्ण अंगो तथा मस्तक की पूजा करे ।

ये ही पूजा के मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्ध्य प्रदान करे । अर्ध्य का मंत्र इस प्रकार है :

"नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोSस्तु ते।
गृहाणार्ध्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे॥"

देवदेवेश्वर ! जमदग्निनन्दन ! श्री विष्णुस्वरुप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आँवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्ध्य ग्रहण कीजिये ।’

तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे । नृत्य, संगीत, वाघ, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णु संबंधी कथा वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे । उसके बाद भगवान विष्णु के नाम ले लेकर आमलक वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे । फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करे । ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की सब सामग्री उसे निवेदित कर दे । परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि : ‘परशुरामजी के स्वरुप में भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों ।’ तत्पश्चात् आमलक का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये । तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे ।

सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है । समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है ।’

वशिष्ठजी कहते हैं : महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरुप से पालन किया । नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करनेवाला है।

Monday, 6 March 2017

Parents Worship Day Celebrations at SanJose Public Library, California

Press Release - Pradhan Times 
News Coverage

#AntiHinduMedia never shows the greatness of Hindu Saints rather always defame them @SanJoseInfo but Pradhan Times newspaper is an exception.

Sunday, 5 March 2017

Association with the Saints

A few days association with the Saints can render you with capabilities far in excess of what you would get by observing Jap, Tapasya and Spiritual Practices for even 12 years. Only the "KARAK PURUSHAS" have the ability to chart their own future. Others should strive to be in the holy company of Saints and the "SADGURU" in order to build their lives and character.

Friday, 3 March 2017

जो तेरी मर्ज़ी, वह मेरी मर्ज़ी


"Be ONE with Gurudev..."

"जो तेरी मर्ज़ी, वह मेरी मर्ज़ी।"

ईश्वर और गुरु के अनुभव में सहमत हो जाने से बहुत श्रम बच जाता है। इतना ही नहीं सदगुरु के अनुभव को अपना अनुभव बना लेने से 84 का चक्कर आसानी से छूट जाता है |

Wednesday, 1 March 2017

Essence of Self

"How can an ordinary person realize What the Vedantnishtha great Saints like Swami Lilashah Ji can easily give you, no one else can give" Asharam Bapu Ji

You may practise Sadhana for 50 years on your own, visit temples and mosques and keep offering devotional services. But the ultimate goal still remains unattained. The saint-poet Narsi Mehta has sung:–
All Sadhana as are illusory so long as one does not know the essence of Self.


One makes rapid progress in Sadhna in the presence of a Jivanmukta Saint. The state one attains as a result has been described by Sant Kabir as thus:-
"My mind like a bird began soaring in the sky,
The heaven was vacant, God being with the saints."


The first time I had gone to live with my Guruji, when I was just a novice, I was stunned at His behavior. Later I realized that it was His grace and compassion that He lived with us so simply so that we also could comprehend His supreme experience and strive for the same. Sometimes, Gurudeva was so harsh that if someone were unfortunate, he would instantly run away. Sant Pritamdasji has thus proclaimed: The path of the Lord is for the brave, cowards dare not tread it. Great Saints like Lilashahji Maharaj have transcended their identification with the body. By encouraging the seekers and if need be by even pushing them, they make others climb the Mount Everest of Knowledge.