Thursday, 21 July 2016

Food for Thought by H. D. H. Asharam Bapu Ji

महाभारत में आता है कि पांडवों के वनवास के समय युधिष्ठिर ने अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्र द्वारा भगवान सूर्य का अनुष्ठान किया। प्रसन्न होकर सूर्यनारायण ने दर्शन दिये और तांबे की एक बटलोई (भोजन बनाने का एक गोल तले का बर्तन) देते हुए कहा कि इस पात्र द्वारा निकला भोजन तब तक अक्षय बना रहेगा जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करे और परोसती रहे। एक दिन पांडव व द्रौपदी भोजन से निवृत होकर सुखपूर्वक बैठे थे तभी अपने दस हजार शिष्यों के साथ दुर्वासा मुनि उस वन में आये। युधिष्ठिर विधिपूर्वक उनकी पुजा करके बोले: “हे मुने! अपना नित्य नियम पूरा करके भोजन के लिये शीघ्र पधारिये।“  

 

इधर द्रौपदी को भोजन के लिये बड़ी चिंता हुई। उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। तभी द्रौपदी को याद आया कि जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और आशा की कोई किरण नहीं होती तो एकमात्र भगवान की प्रार्थना और उनका आश्रय ही हमें बचा सकता है। वह सच्चे मन से भगवान श्रीकृष्ण को पुकारने लगी। शुद्ध हृदय से की गयी सच्ची, भावपूर्ण प्रार्थना ईश्वर जरूर सुनते हैं। द्रौपदी की पुकार सुनकर भगवान तुरंत ही वहाँ आ पहुँचे। द्रौपदी ने सब समाचार कह सुनाया। श्रीकृष्ण ने कहा: “कृष्णे! इस समय बहुत भूख लगी है, पहले मुझे भोजन कराओ फिर सारा प्रबंध करते रहना।“ उनकी बात सुनकर द्रौपदी को बड़ा संकोच हुआ। वह बोली: “देव! सूर्यनारायण की दी हुई बटलोई से तभी तक भोजन मिलता है,जब तक मैं भोजन न कर लूँ। आज तो मैं भी भोजन कर चुकी हूँ, अत: अब उसमें भोजन नहीं है।“

 

“कृष्णे! जल्दी जाओ और बटलोई लाकर मुझे दिखाओ।“ हठ करके द्रौपदी से बटलोई मँगवायी। पात्र में जरा सा साग लगा हुआ था। श्री कृष्ण ने उसे खा लिया और कहा: “इस साग से सम्पूर्ण विश्व के आत्मा यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त और संतुष्ट हों।“

 

इधर मुनि लोगों को सहसा पूर्ण तृप्ति का अनुभव हुआ। बार-बार अन्नरस से युक्त डकारें आने लगीं। यह देख वे जल से बाहर निकले और दुर्वासा मुनि से बोले: “हे मुने! इस समय इतनी तृप्ति हो रही है कि कण्ठ तक अन्न भरा हुआ जान पड़ता है। अब कैसे भोजन करेंगे?” दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों सहित पांडवों से बिना मिले ही वहाँ से प्रस्थान कर गये। अत: संकट में भगवान व गुरु की शरण तथा प्रार्थना का आश्रय लेने से बिगड़ी हुई बाजी भी सँवर जाती है।

 

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