Friday, 30 December 2016
Gratitude is the best Attitude
Wednesday, 28 December 2016
In the middle of every difficulty, lies opportunity
"हजारों प्रतिकूलताओं में भी जो निराश नहीं होता वह अवश्य विजयी होता है। निराशा व कायरता तो कमजोर लोगों की पहचान है। सत्संग सुनकर असफलताओं के सिर पर पैर रखो और आगे बढ़ो।"
हरि ॐ......हरि ॐ......हरि ॐ.........
Monday, 26 December 2016
Tulsi Pujan Celebrations at AshramHaridwar
तुलसी पूजन दिवस - २५ दिसम्बर
Sunday, 25 December 2016
25 December - Tulsi Pujan Divas
25 दिसम्बर - " तुलसी पूजन दिवस "
Saturday, 24 December 2016
Come One Come All for Tulsi Pujan at AshramHaridwar
01.00PM - Mahaprasad
Friday, 23 December 2016
24 दिसम्बर - सफला एकादशी
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी - बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है । पौष मास के कृष्णपक्ष में ‘...सफला’ नाम की एकादशी होती है । उस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए । जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है ।
राजन् ! ‘सफला एकादशी’ को नाम मंत्रों का उच्चारण करके नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा तथा जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों और धूप दीप से श्रीहरि का पूजन करे । ‘सफला एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता ।
नृपश्रेष्ठ ! अब ‘सफला एकादशी’ की शुभकारिणी कथा सुनो । चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी । राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे । उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था । परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था । उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया । वह सदा दुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था । अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । लुम्भक गहन वन में चला गया । वहीं रहकर उसने प्राय: समूचे नगर का धन लूट लिया । एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया । फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा । उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था । उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था । पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था ।
एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया । पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा । उस समय ना तो उसे नींद आयी और ना आराम ही मिला । वह निष्प्राण सा हो रहा था । सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया । ‘सफला एकादशी’ के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा । दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई । फिर इधर-उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लँगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया । वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था । राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल पर लौटा, तब तक सूर्यदेव अस्त हो गये । तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा: ‘इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों ।’ यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली । इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया । उस समय सहसा आकाशवाणी हुई: ‘राजकुमार ! तुम ‘सफला एकादशी’ के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया । इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया । तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता ।
राजन् ! इस प्रकार जो ‘सफला एकादशी’ का उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है । संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला एकादशी’ के व्रत में लगे रहते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है । महाराज ! इसकी महिमा को पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है ।
Tuesday, 20 December 2016
२१ दिसम्बर- बुधवारी अष्टमी
२१ दिसम्बर- बुधवारी अष्टमी
(सूर्योदय से रात्रि ८.१९ तक।)
जप,दान,ध्यान व सभी पुण्यकर्मों का सूर्यग्रहण के समान अक्षय फल देने वाला शुभ समय।
Monday, 19 December 2016
What is Brahm?
Monday, 12 December 2016
The Existence Of GOD
Belief in the Existence of GOD shows that one is searching for truth. Truth is that which is unborn, immortal and remains unchanged in the past, present and future. To know it, one needs to purify one’s thoughts, speech and actions. Purification is of utmost importance because only through a purified mind can an aspirant think clearly and contemplate deeply. Once we are sincerely determined to search for the truth and fully committed to self – purification, we are certain to find the way and reach our goal. Truth itself becomes our guide and we find ourselves on the right path.
Truth is the Divine Force which dwells in every individual’s heart. It is the all-pervading, eternal reality joining one individual to another and linking all existence in one Divine awareness. That Divine Force is called GOD. One who believes in and surrenders himself to GOD attains freedom here and now. He knows that he belongs to GOD---and God belongs to him. His awareness shifts from the world to GOD and he lives a life free from insecurity and fear. He has an unshakable faith in Divine protection. The scriptures constantly remind us that just as the ocean accepts a river and makes it its own, so GOD receives all who sincerely seek the DIVINE. It does not matter which path they follow or from which background they come. The only requirement is a desire to know the truth. Once the desire is awakened, all means and resources come together. Water finds its own level; likewise, a true lover of GOD finds GOD. The highest philosophy is to know that truth and GOD are one and the same and the highest practice is to search for truth through one’s thoughts, speech and action.
Friday, 9 December 2016
१० दिसम्बर २०१६: मोक्षदा एकादशी / गीता जयंती
Tuesday, 6 December 2016
Budhwari Ashtami - 7 December 2016
७ दिसम्बर - बुधवारी अष्टमी
(सूर्योदय से रात्रि २.०५ तक)
जप - ध्यान, गंगास्नान, दान व श्राद्धकर्म का सूर्यग्रहण के समान अक्षय फल देने वाली उत्तम तिथि। सभी अवश्य लाभ लें।
Monday, 5 December 2016
Satsang Discourse - जिसने सत्य को जान लिया
हमसे है जमाना, जमाने से हम नहीं।"
Thursday, 1 December 2016
Prernamurti in Mumbai
"कबीरा कलयुग आ गया झर-झर पड़े अंगार,
संत ना होते जगत में तो जल मरता संसार।"
परम पूज्य भारती श्रीजी का सत्संग आज (1st दिसम्बर) शाम 5 बजे से गोरेगांव आश्रम, मुंबई में। सभी अवश्य लाभ लें।
Tuesday, 29 November 2016
हर परिस्थिति में अचूक मंत्र
साक्षीभाव, असंगता वास्तव में एक ऐसा मंत्र है जो हर परिस्थिति में अचूक है। यह जिसके जीवन में आ जाता है वह दुनिया की सारी परिस्थितियों के सिर पर पैर रखकर सद्गुरु कृपा से अपने परमात्म - स्वरूप, ब्रह्मस्वरूप को पा लेता है।
जीवन में जो भी हो रहा है उस पर प्रतिक्रिया किये बिना यदि हम उसे देखते जायें और अपना सहज कर्म करते जायें तो शीघ्र ही उस मंजिल पर पहुँच सकते हैं ।
Wednesday, 16 November 2016
Param Shanti - Satsang Discourse by Asharam Bapu Ji
सत्संग से जितना लाभ होता है उतना किसी कोर्स और तपस्या से भी नहीं होता। इसलिए सत्संग देने वाले अनुभवी सत्पुरुषों का जितना आदर करें उतना कम है। उनकी आज्ञा के अनुसार जितना जीवन ढालें उतना ही अपना मंगल है। सत्संग से पाँच लाभ तो सहज में होने लगते हैं :-
1. भगवन्नाम के जप – कीर्तन का लाभ मिलकर भगवान की महिमा सुनने को मिलती है।
2. भगवान के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान मिलता है।
3. भगवद ध्यान एवं सेवा का स...दगुण विकसित होने लगता है।
4. बुद्धि में ईश्वर व ईश्वर प्राप्त महापुरुष के विलक्षण लक्षण विकसित होने लगते हैं।
5. अच्छा संग मिलता है।
पूज्य बापूजी कहते हैं, "वास्तविक आराम (परमात्म – विश्रांति) पाने के लिये ही मनुष्य जन्म मिला है, नींद तो भैंसा भी कर लेता है और यह परमात्म - विश्रांति केवल सत्संग से ही संभव है अत: सत्संग अवश्य करना चाहिये।"
Monday, 14 November 2016
Guru Nanak Jayanti & Kathik Purnima
14 नवम्बर - गुरु नानक जयंती / कार्तिक पूर्णिमा
जप, ध्यान, गंगास्नान तथा मंदिर, पीपल के वृक्ष, तुलसी के पौधों के पास व गंगाजी में दीपदान का अक्षय फल। सभी लाभ अवश्य लें।
पूज्य संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से:-
" और हृदय-परिवर्तन हो गया.......
चाहे कोई विश्व का चक्रवर्ती सम्राट ही क्यों न हो किन्तु इस जहाँ से तो उसे भी खाली हाथ ही जाना है ।
"सिकंदर दारा हल्या वया सोने लंका वारा हल्या वया ।
कारुन खजाने जा मालिक हथे खाली विचारा हल्या वया।।"
‘सारे विश्व पर राज्य करने का स्वप्न देखनेवाला सिकंदर न रहा, जिसके पास सोने की लंका थी, वह रावण भी न रहा, बहुत बड़े खजाने का मालिक कारुन भी न रहा । ये सब इस जहाँ से खाली हाथ ही चले गये ।’
कारुन बादशाह तो इतना जालिम था कि उसने कब्रों तक को नहीं छोड़ा, कर-पर-कर लगाकर प्रजा का खून ही चूस लिया था । आखिर जब देखा कि प्रजा के पास अब एक भी चाँदी का रुपया नहीं बचा है, तब उसने घोषणा कर दी कि ‘जिसके पास चाँदी का एक भी रुपया होगा उसके साथ मैं अपनी बेटी की शादी कर दूँगा ।’
बादशाह की यह घोषणा सुनकर एक युवक ने अपनी माँ से कहा :
‘‘अम्माजान ! कुछ भी हो एक रुपया दे दे ।’’
माँ : ‘‘बेटा ! कारुन बादशाह के राज में किसीके पास रुपया ही कहाँ बचा है, जो तुझे एक रुपया दे दूँ ? तू खाना खा ले, मेरे लाल !’’
युवक : ‘‘अम्माजान ! मैं खाना तभी खाऊँगा जब तू मुझे एक रुपया दे देगी । मैं शहजादी के बिना नहीं जी सकता ।’’
हकीकत तो यह है कि परमात्मा के बिना कोई जी नहीं सकता है लेकिन बेवकूफी घुस जाती है कि ‘मैं प्रेमिका के बिना नहीं जी सकता... मैं शराब के बिना नहीं जी सकता...’
एक दिन, दो दिन, तीन दिन बेटा भूखा रहा... माँ ने छाती पीटी, सिर कूटा किंतु लड़का टस-से-मस न हुआ । अब माँ का हृदय हाथ में कैसे रहता ? माँ ने अल्लाहताला से प्रार्थना की । प्रार्थना करते-करते माँ को एक युक्ति सूझी । उसने बेटे से कहा :
‘‘मेरे लाल ! तू तीन दिन से भूखा मर रहा है । हठ पकड़कर बैठ गया है । कारुन ने किसीके पास एक रुपया तक नहीं छोड़ा है । फिर भी मुझे याद आया कि तेरे अब्बाजान को दफनाते समय उनके मुँह में एक रुपया रखा था । अब जब तू अपनी जान कुर्बान करने को ही तैयार हो गया है तो जा, अपने अब्बाजान की कब्र खोदकर उनके मुँह से एक रुपया निकाल ले और कारुन बादशाह को दे दे ।’’
कारुन ने अपने अब्बाजान की कब्र खोदकर एक रुपया लानेवाले लड़के को अपनी कन्या तो नहीं दी बल्कि सारे कब्र खुदवाये और मुर्दों के मुँह में पड़े हुए रुपये निकलवा लिये । कब्रों में पड़े हुए मुर्देबेचारे क्या बोलें ? यदि कोई हिन्दू राजा ऐसा करता तो उसे न मुसलमान बादशाह ही बख्सते न हिन्दू राजा ही क्षमा करते ।
कैसा लोभी और जालिम रहा होगा कारुन !
गुरु नानक को इस बात का पता चला । उन्होंने कारुन की इस बेवकूफी को दूर करने का मन-ही-मन निश्चय कर लिया और विचरण करते-करते कारुन के महल के पास अपना डेरा डाला ।
लोग नानकजी के पास मत्था टेकने आते । पुण्यात्मा-धर्मात्मा, समझदार लोग उनके अमृतवचन सुनकर शांति पाते । धीरे-धीरे उनका यश चतुर्दिक् प्रसरित होने लगा । कारुन को भी हुआ कि ‘चलो, किसी पीर-फकीर की दुआ मिले तो अपना खजाना और बढ़े ।’ वह भी मत्था टेकने आया ।
आत्मारामी संत-फकीर तो सभीके होते हैं । जो लोग बिल्कुल नासमझ होते हैं वे ही बोलते हैं कि ‘ये फलाने के महाराज हैं ।’ वरना संत तो सभी के होते हैं । जैसे गंगा का जल सबके लिए है, वायु सबके लिए है, सूर्य का प्रकाश सबके लिए समान है, ऐसे ही संत भी सबके लिए समान ही होते हैं ।
कारुन बादशाह नानकजी के पास आया । नानकजी को मत्था टेका । नानकजी ने उसको एक टका दे दिया और कहा : ‘‘बादशाह सलामत के लिए और कोई सेवा नहीं है केवल इस एक टके को सँभालकर रखना । (पहले के जमाने में एक रुपये में 16 आने होते थे । टका मतलब आधा आना - आज के करीब 3 पैसे ।) जब मुझे जरूरत पड़ेगी तब तुमसे ले लूँगा और हाँ, यहाँ तो मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ेगी किन्तु मरने के बाद जब तुम परलोक में मिलोगे तब दे देना । मेरी यह अमानत सँभालकर रखना ।’’
कारुन : ‘‘महाराज ! मरने के बाद आपका टका मैं कैसे ले जाऊँगा ?’’
नानकजी : ‘‘क्यों ? इसमें क्या तकलीफ है? तुम इतने खजानों को तो साथ ले ही जाओगे । प्रजा का खून चूसकर और ढेर सारी कब्रें खुदवाकर तुमने जो खजाना एकत्रित किया है उसे तो तुम ले ही जाओगे, उसके साथ मेरा एक टका उठाने में तुम्हें क्या कष्ट होगा ? भैया ! पूरा ऊँट निकल जाय तो उसकी पूँछ क्या डूब सकती है ?’’
कारुन : ‘‘महाराज ! साथ में तो कुछ नहीं जायेगा । सब यहीं धरा रह जायेगा ।’’
नानकजी : ‘’इतना तो तुम भी समझते हो कि साथ में कुछ भी नहीं जायेगा । फिर इतने समझदार होकर कब्रें तक खुदवाकर खजाने में रुपये क्यों जमा किये ?’’
नानकजी की कृपा और शुभ संकल्प के कारण कारुन का हृदय बदल गया ! उसने खजाने के द्वार खोले और प्रजा के हित में संपत्ति को लगा दिया ।
जिसने कब्र तक से पैसे निकलवा लिये ऐसे कारुन जैसे का भी हृदय परिवर्तित कर दिया नानकजी ने !
(ऋषि प्रसाद : जून 2002)
Friday, 28 October 2016
Happy Dhanteras
धनतेरस की शाम को घर के मुख्य द्वार के बाहर दक्षिण दिशा की और मुख करके यमराज के लिये दो दीपदान करें व निम्न मंत्र बोलें :-
- ॐ यमाय नम:
- ॐ धर्मराजाय नम:
- ॐ मृत्यवे नम:
- ॐ अन्तकाय नम:
- ॐ कालाय नम:
शाम को तुलसीजी के आगे दीपक रखें इससे दरिद्रता मिटती है।
Wednesday, 26 October 2016
रमा एकादशी – 26 अक्टूबर 2016 - श्री माँ महंगीबाजी का महानिर्वाण दिवस
रमा एकादशी – 26 अक्टूबर 2016
श्री माँ महंगीबाजी का महानिर्वाण दिवस।
हर एकादशी को “श्री विष्णुसहस्रनाम” का पाठ करने से घर में सुख शांति बनी रहती है।
“राम रामेति रामेति । रमे रामे मनोरमे ।। सहस्त्र नाम त तुल्यं । राम नाम वरानने।।“ एकादशी के दिन इस मंत्र के पाठ से श्री विष्णुसहस्रनाम के जप के समान पुण्य प्राप्त होता है l...
एकादशी के दिन बाल नहीं कटवाने चाहिए। एकादशी को चावल व साबूदाना खाना वर्जित है | जो दोनों पक्षों की एकादशियों को आँवले के रस का प्रयोग कर स्नान करते हैं, उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। रमा एकादशी का व्रत बड़े – बड़े पापों को हरनेवाला, चिन्तामणि तथा कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है |
युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! मुझ पर आपका स्नेह है, अत: कृपा करके बताइये कि कार्तिक के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?
भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! कार्तिक (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार आश्विन) के कृष्णपक्ष में "रमा" नाम की विख्यात और परम कल्याणमयी एकादशी होती है । यह परम उत्तम है और बड़े-बड़े पापों को हरनेवाली है ।
पूर्वकाल में मुचुकुन्द नाम से विख्यात एक राजा हो चुके हैं, जो भगवान श्रीविष्णु के भक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे । अपने राज्य पर निष्कण्टक शासन करने वाले उन राजा के यहाँ नदियों में श्रेष्ठ ‘चन्द्रभागा’ कन्या के रुप में उत्पन्न हुई । राजा ने चन्द्रसेनकुमार शोभन के साथ उसका विवाह कर दिया । एक बार शोभन दशमी के दिन अपने ससुर के घर आये और उसी दिन समूचे नगर में पूर्ववत् ढिंढ़ोरा पिटवाया गया कि “एकादशी के दिन कोई भी भोजन न करे।“ इसे सुनकर शोभन ने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागा से कहा : “प्रिये ! अब मुझे इस समय क्या करना चाहिए, इसकी शिक्षा दो ।“
चन्द्रभागा बोली : “ प्रभो ! मेरे पिता के घर पर एकादशी के दिन मनुष्य तो क्या कोई पालतू पशु आदि भी भोजन नहीं कर सकते । प्राणनाथ ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी । इस प्रकार मन में विचार करके अपने चित्त को दृढ़ कीजिये।“
शोभन ने कहा : “प्रिये ! तुम्हारा कहना सत्य है । मैं भी उपवास करुँगा । दैव का जैसा विधान है, वैसा ही होगा।“
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : “इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभन ने व्रत के नियम का पालन किया किन्तु सूर्योदय होते - होते उनका प्राणान्त हो गया । राजा मुचुकुन्द ने शोभन का राजोचित दाह संस्कार कराया । चन्द्रभागा भी पति का पारलौकिक कर्म करके पिता के ही घर पर रहने लगी ।
नृपश्रेष्ठ ! उधर शोभन इस व्रत के प्रभाव से मन्दराचल के शिखर पर बसे हुए परम रमणीय देवपुर को प्राप्त हुए। वहाँ शोभन द्वितीय कुबेर की भाँति शोभा पाने लगे। एक बार राजा मुचुकुन्द के नगरवासी विख्यात ब्राह्मण सोमशर्मा तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते हुए मन्दराचल पर्वत पर गये, जहाँ उन्हें शोभन दिखायी दिये । राजा के दामाद को पहचानकर वे उनके समीप गये । शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा को आया हुआ देखकर शीघ्र ही आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम किया । फिर क्रमश: अपने ससुर राजा मुचुकुन्द, प्रिय पत्नी चन्द्रभागा तथा समस्त नगर का कुशलक्षेम पूछा ।
सोमशर्मा ने कहा : राजन् ! वहाँ सब कुशल हैं । आश्चर्य है ! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा । बताओ तो सही, आपको इस नगर की प्राप्ति कैसे हुई?
शोभन बोले : द्विजेन्द्र ! कार्तिक के कृष्णपक्ष में जो ‘रमा’ नाम की एकादशी होती है, उसी का व्रत करने से मुझे ऐसे नगर की प्राप्ति हुई है । ब्रह्मन् ! मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया था, इसलिए मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर स्थायी नहीं है । आप मुचुकुन्द की सुन्दरी कन्या चन्द्रभागा से यह सारा वृत्तान्त कहियेगा ।
शोभन की बात सुनकर ब्राह्मण मुचुकुन्दपुर में गये और वहाँ चन्द्रभागा के सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।
सोमशर्मा बोले : “शुभे ! मैंने तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा । इन्द्रपुरी के समान उनके दुर्द्धर्ष नगर का भी अवलोकन किया, किन्तु वह नगर अस्थिर है । तुम उसको स्थिर बनाओ।“
चन्द्रभागा ने कहा : “ब्रह्मर्षे ! मेरे मन में पति के दर्शन की लालसा लगी हुई है । आप मुझे वहाँ ले चलिये । मैं अपने व्रत के पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाऊँगी।“
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : “राजन् ! चन्द्रभागा की बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वत के निकट वामदेव मुनि के आश्रम पर गये । वहाँ ॠषि के मंत्र की शक्ति तथा एकादशी सेवन के प्रभाव से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली । इसके बाद वह पति के समीप गयी । अपनी प्रिय पत्नी को आया हुआ देखकर शोभन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उसे बुलाकर अपने वाम भाग में सिंहासन पर बैठाया । तदनन्तर चन्द्रभागा ने अपने प्रियतम से यह प्रिय वचन कहा: ‘नाथ ! मैं हित की बात कहती हूँ, सुनिये । जब मैं आठ वर्ष से अधिक उम्र की हो गयी, तबसे लेकर आज तक मेरे द्वारा किये हुए एकादशी व्रत से जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभाव से यह नगर कल्प के अन्त तक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकार के मनोवांछित वैभव से समृद्धिशाली रहेगा।“
“नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार “रमा एकादशी” के व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रुप और दिव्य आभरणों से विभूषित हो अपने पति के साथ मन्दराचल के शिखर पर विहार करती है । राजन् ! मैंने तुम्हारे समक्ष ‘रमा’ नामक एकादशी का वर्णन किया है । यह चिन्तामणि तथा कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है।“
Saturday, 22 October 2016
रविपुष्यामृत योग
23 अक्टूबर 2016 - रविपुष्यामृत योग( सूर्योदय से रात्रि 08:40 तक )
बरगद के पत्ते पर गुरुपुष्य या रविपुष्य योग में हल्दी से स्वस्तिक बनाकर घर में रखें और दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलें। रविवार के साथ पुष्य नक्षत्र का संयोग "रविपुष्यामृत योग" कहलाता है। यह योग मंत्र सिद्धि व औषध-प्रयोग के लिये विशेष फलदायी है। इस योग में किया गया जप, तप, ध्यान, दान महाफलदायी होता है।
Tuesday, 18 October 2016
तुम्हारी खुद की निष्ठा
कल शाम पूज्य गुरुदेव की कृपा से उच्चकोटि के संत के दर्शन सान्निध्य का लाभ मिला। सत्संग हुआ। सभी अपनी जिज्ञासा व्यक्त कर रहे थे। हमसे भी अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने को कहा गया। हमने पूछा कि ईश्वर कृपा या गुरु कृपा तो सबके ऊपर होती है पर किसी-किसी के ऊपर जो "विशेष कृपा" होती है उसका क्या कारण होता है?
संत मुस्कुराये और बोले, इसका कारण है - "तुम्हारी खुद की निष्ठा"। गुरु के प्रति जिसकी जितनी "निष्ठा" उतना ही वह "गुरुकृपा" का अधिकारी। किसी भी परिस्थिति में कोई भी गुरु के प्रति शिष्...य की निष्ठा को हिला ना सके शिष्य को ऐसा होना चाहिये।"
आज ही हमें आनंदमूर्ति गुरुमाँ का यह VIDEO मिला, जिसमें उन्होने भी यही बात कही है।
Saturday, 15 October 2016
Sharad Purnima
शरद पूर्णिमा - 15 अक्टूबर
आरोग्य व पुष्टि देनेवाली खीर:-
शरद पूनम ( १५ अक्टूबर ) की रात को आप जितना दूध उतना पानी मिलाकर आग पर रखो और खीर बनाने के लिए उसमें यथायोग्य चावल तथा शक्कर या मिश्री डालो | पानी वाष्पीभूत हो जाय, केवल दूध और चावल बचे, बस खीर बन गयी | जो दूध को जलाकर तथा रात को बादाम, पिस्ता आदि डाल के खीर खाते हैं उनको तो बीमारियाँ का सामना करना पड़ता है | उस खीर को महीन सूती कपड़े, चलनी या जाली से अच्छी तरह ढककर चन्द्रमा की किरणों में पुष्ट होने के लिए रात्रि ९ से १२ बजे तक रख दिया | बाद में जब खीर खायें तो पहले उसे देखते हुए २१ बार "ॐ नमो नारायणाय " जप कर लें तो वह औषधि बन जायेगी | इससे वर्षभर आपकी रोगप्रतिकारक शक्ति की सुरक्षा व प्रसन्नता बनी रहेगी |
इस रात को हजार काम छोडकर कम-से-कम १५ मिनट चन्द्रमा की किरणों का फायदा लेना, ज्यादा लो तो हरकत नहीं | छत या मैदान में विद्युत् का कुचालक आसन बिछाकर चन्द्रमा को एकटक देखना | अगर मौज पड़े तो आप लेट भी सकते हैं | श्वासोच्छ्वास के साथ भगवन्नाम और शांति को भरते जायें, नि:संकल्प नारायण में विश्रांति पायें |
जो लोग निगुरे हैं, जिन लोगों के चित्त में वासना है उन लोगों को अकेलापन खटकता है।जिनके चित्त में राग, द्वेष और मोह की जगह पर सत्य की प्यास है उनके चित्त में आसक्ति का तेल सूख जाता है। आसक्ति का तेल सूख जाता है तो वासना का दीया बुझ जाता है। वासना का दीया बुझते ही आत्मज्ञान का दीया जगमगा उठता है। संसार में बाह्य दीया बुझने से अँधेरा होता है और भीतर वासना का दीया बुझने से उजाला होता है। इसलिए वासना के दीये में इच्छाओं का तेल मत डालो। आप इच्छाओं को हटाते जाओ ताकि वासना का दीया बुझ जाय और ज्ञान का दीया दिख जाय। वासना का दीया बुझने के बाद ही ज्ञान का दीया जलेगा ऐसी बात नहीं है। ज्ञान का दीया भीतर जगमगा रहा है लेकिन हम वासना के दीये को देखते हैं इसलिए ज्ञान के दीये को देख नहीं पाते।
कुछ सैलानी सैर करने सरोवर गये। शरदपूर्णिमा की रात थी। वे लोग नाव में बैठे। नाव आगे बढ़ी। आपस में बात कर रहे हैं कि, “यार ! सुना था, चाँदनी रात में जलविहार करने का बड़ा मज़ा आता है…. पानी चाँदी जैसा दिखता है…. यहाँ चारों और पानी ही पानी है। गगन में पूर्णिमा का चाँद चमक रहा है फिर भी मज़ा नहीं आता है।”
केवट उनकी बात सुन रहा था। वह बोलाः “बाबू जी ! चाँदनी रात का मजा लेना हो तो यह जो टिमटिमा रहा है न लालटेन, उसको फूँक मारकर बुझा दो। नाव में फानूस रखकर आप चाँदनी रात का मजा लेना चाहते हो? इस फानूस को बुझा दो।” फानूस को बुझाते ही नावसहित सारा सरोवर चाँदनी में जगमगाने लगा। …....तो क्या फानूस के पहले चाँदनी नहीं थी? आँखों पर फानूस के प्रकाश का प्रभाव था इसलिए चाँदनी के प्रभाव को नहीं देख पा रहे थे।
इसी प्रकार वासना का फानूस जलता है तो ज्ञान की चाँदनी को हम नहीं देख सकते हैं। अतः वासना को पोसो मत। - पूज्य बापूजी